Book Title: Kayotsarga
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 14
________________ साधना का मूलाधार है सामायिक-समभाव । समभाव में वह ही रह सकता है जो द्रष्टा है; कर्ता और भोक्ता नहीं है, अर्थात् कर्मोदय से व प्राकृतिक विधान से जैसी स्थिति का निर्माण हो रहा है, उसे राग-द्वेष रहित आनन्दपूर्वक, प्रसन्नतापूर्वक देखता रहे, सहन करता रहे। उसका उपचार-उपाय न करे। उसे सह न सके, परीषहजयी नहीं हो सके और उपचार करे तो उसे अपनी निर्बलता व कमी समझे; उसे साधना का अंग न बनाये। 'पर' के आलंबन से न कभी मुक्ति मिली है, और न मिल सकती है। 'पर' का आलंबन छुटने से ही, पर का आश्रय व शरण त्यागने से ही मुक्ति मिलने वाली है। एक प्रकार का परालंबन दूसरे प्रकार के परालंबन से छुड़ा देगा, यह मान्यता भ्रान्ति है। विष से विष मिटता है-यह सूत्र अध्यात्म मार्ग का नहीं है, यह नीतिवाक्य है, जिसका संबंध संसार से है। शरीर में रहते हुए शरीर से असंग होना, शरीर से अनासक्त होना अर्थात् कायोत्सर्ग करना मुक्ति की साधना है; असंग होने व अनासक्त होने में शरीर का सहयोग अपेक्षित नहीं है। मानव मात्र में शरीर व संसार से असंग, अतीत होने की क्षमता है, यही मानव-भव की विशेषता है। सर्वसंग रहित होने का प्रयास ही साधना है। धर्म-ध्यान की साधना सम्यग्दृष्टि ही कर सकता है। जिस साधक का लक्ष्य स्व को पर से भिन्न समझ स्व-रूप में स्थित होने का है, वह ही सम्यग्दृष्टि है। जिन्हें सम्यग्दर्शन नहीं है वे धर्म-ध्यान व शुक्ल ध्यान की साधना नहीं कर सकते हैं। जहाँ धर्म-ध्यान नहीं है, वहाँ आर्त या रौद्रध्यान ही है। धर्म-ध्यान की साधना के लिये सम्यग्दर्शन-सम्यक्ज्ञान आवश्यक है। राग-द्वेष, विषय-कषाय आदि विकारों का निवारण करने का पुरुषार्थ करना ही साधना है। कामना, निदान, आरम्भ, परिग्रह, विषय-सुख की रुचिप्रलोभन-भोग व आशा के त्याग से नवीन राग (बन्ध) की उत्पत्ति नहीं होती है और ममता-अहंता-परिग्रह के त्याग से उदयमान (विद्यमान) राग की निवृत्ति होती है। राग निवृत्ति ही साधना है। जो ध्यान राग से निवृत्ति करता है उसी ध्यान का साधना में स्थान है और वही धर्म-ध्यान है। ___ ध्यान चारित्र है, जो सम्यक्ज्ञान-दर्शन के पश्चात् ही हो सकता है। यह रागादि विकार-निवारण की साधना है जो आरम्भ-परिग्रह घटाने, व्रत धारण करने, भोगोपभोग-परिग्रह का परिमाण करने व इनके त्यागने से ही संभव है। ___ सभी जीवों को, दुःखों एवं दोषों से मुक्त होना इष्ट है। कोई भी व्यक्ति दु:खी होना या दोषी ‘पापी' कहलाना पसन्द नहीं करता है। समस्त दोषों एवं प्राक्कथन 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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