Book Title: Kayotsarga
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 12
________________ के लिए सजग रहने व त्यागने की दृष्टि से जैन दर्शन में इनका वर्णन किया है। इन्हीं के त्याग को पतंजलि योग में यम-नियम और विपश्यना में शील कहा है। अपने वास्तविक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए चित्त की एकाग्रता को जैन दर्शन में शुभ ध्यान कहा है । जीवन का वास्तविक लक्ष्य है ध्रुवत्व-अविनाशित्व, अमरत्व को प्राप्त करना, यही जीव का स्वभाव है। स्वभाव को ही धर्म कहा गया है। स्वभाव के चिन्तन करने को और विभाव का निवारण करने को धर्म-ध्यान कहा है। स्वभाव में स्थित रहने के पुरुषार्थ को शुक्ल ध्यान कहा है। धर्म-ध्यान और शुक्ल ध्यान, दोनों ध्यान शुभ ध्यान हैं। इस पुस्तक में आर्त ध्यान-रौद्र ध्यान से बचने एवं धर्म-ध्यान-शुक्ल ध्यान करने का विवेचन किया है। जब साधक शुभ ध्यान से स्वभाव में, निज स्वरूप में स्थित हो जाता है तब मन-वचन-काया से प्रवृत्तिपरक कुछ भी प्रयत्न करना शेष नहीं रहता है। स्वभाव में स्थित होने पर साधक के काया (देह) व काया से सम्बन्धित संसार, कषाय व कर्म का व्युत्सर्ग हो जाता है अर्थात् इनसे परे हो जाता है, इनसे ऊपर उठ जाता है, इनसे असंग हो जाता है। इसे ही कायोत्सर्ग कहा है। ध्यान तक चिन्तन रूप प्रवृत्तिपरक श्रमसाध्य प्रयत्न रहता है। जबकि 'कायोत्सर्ग' प्रवृत्तिपरक पुरुषार्थ से परे की अवस्था है। ध्यान विरक्तिप्रधान साधना है और कायोत्सर्ग वीतरागता का अभिव्यक्तक है। इस दृष्टि से ध्यान और कायोत्सर्ग, इन दोनों तपों का अलग-अलग स्वरूप है। जैन धर्म की श्वेताम्बर-दिगम्बर आदि सभी सम्प्रदायों में तप के बारह भेद बताये हैं। उनमें ध्यान ग्यारहवाँ और कायोत्सर्ग बारहवाँ भेद है। अतः ध्यान और कायोत्सर्ग को एक मान लेना कायोत्सर्ग के महत्त्व को भुला देना है। इस दृष्टि से प्रस्तुत पुस्तक में कायोत्सर्ग के स्वरूप व महिमा पर विशेष प्रकाश डाला गया है। मन, वचन और काया ये तीनों करण पौद्गलिक हैं, जड़ हैं, चेतन आत्मा से भिन्न हैं; इनके सदुपयोग का दायित्व है, परन्तु इनका आश्रय रहते पराधीनता का अन्त होकर निज स्वरूप में स्थित होना अर्थात् कायोत्सर्ग होना सम्भव नहीं है अर्थात् अपने शुद्ध स्वभाव की जो अनश्वर, अविनाशी, ध्रुव, निज चेतन स्वरूप है, उसकी उपलब्धि नहीं हो सकती। साधक का लक्ष्य शरीर से सदा के लिए मुक्त होना एवं संसार-सागर से परे होना है। इस लक्ष्य की प्राप्ति शरीर और संसार के पदार्थों के आश्रय से होगीयह मानना मूल भूल है। शरीर, वचन और मन पौद्गलिक करण हैं, साधन हैं। करण व साधन अपने आप में भले-बुरे , हितकर-अहितकर नहीं होते। इनसे होने वाली भलाई-बुराई इन करणों के उपयोग के कर्ता के भावों पर निर्भर है। प्राक्कथन 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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