________________
देहाभिमान होने से ही कामनाओं, ममताओं आदि समस्त विषय - कषाय आदि विकारों की उत्पत्ति होती है। इस विकारों का नाश करना ही व्युत्सर्ग साधना है ।
विवाह प्रज्ञप्ति सूत्र के शतक 25 उद्देशक 7 के अनुसार व्युत्सर्ग के भेदउपभेद इस प्रकार हैं
व्युत्सर्ग मूलतः दो प्रकार का है- 1. द्रव्य व्युत्सर्ग और 2. भाव व्युत्सर्ग । द्रव्य व्युत्सर्ग-द्रव्य व्युत्सर्ग चार प्रकार का है - 1. गण ( परिवेश, समुदाय) व्युत्सर्ग 2. शरीर व्युत्सर्ग 3. उपधि ( उपकरण, साधन-सामग्री) व्युत्सर्ग और 4. भक्त - पान (आहार आदि - इन्द्रियों के भोग) व्युत्सर्ग।
शरीर से सम्बन्धित इन चारों बाहरी प्रकारों के ममत्व व आसक्ति रहित होना द्रव्य व्युत्सर्ग है ।
भाव व्युत्सर्ग-भाव व्युत्सर्ग तीन प्रकार का है - 1. कषाय- व्युत्सर्ग 2. संसार व्युत्सर्ग और 3. कर्म - व्युत्सर्ग।
कषाय- व्युत्सर्ग- कषाय- व्युत्सर्ग चार प्रकार का है- 1. क्रोध व्युत्सर्ग 2. मान व्युत्सर्ग 3. माया व्युत्सर्ग और 4. लोभ व्युत्सर्ग। इन चारों कषायों से रहित होना कषाय- व्युत्सर्ग है ।
संसार व्युत्सर्ग-संसार व्युत्सर्ग चार प्रकार का है - 1. नैरयिक संसार व्युत्सर्ग 2. तिर्यंच संसार व्युत्सर्ग 3. मनुष्य संसार व्युत्सर्ग और 4. देव संसार व्युत्सर्ग। इन चार गतियों में रोके रखने वाले कारणों का त्याग करना संसार व्युत्सर्ग है।
कर्म - व्युत्सर्ग- कर्म - व्युत्सर्ग आठ प्रकार का है - 1. ज्ञानावरणीय कर्मव्युत्सर्ग 2. दर्शनावरणीय कर्म-व्युत्सर्ग 3. वेदनीय कर्म-व्युत्सर्ग 4. मोहनीय कर्म - व्युत्सर्ग 5. आयुष्यकर्म-व्युत्सर्ग 6. नामकर्म-व्युत्सर्ग 7. गोत्रकर्म-व्युत्सर्ग और 8 अन्तरायकर्म - व्युत्सर्ग। इन आठों कर्मों के बन्ध के कारणों का त्याग करना कर्मव्युस है ।
उपर्युक्त वर्णित व्युत्सर्गों में गण, शरीर, उपधि और भक्त-पान व्युत्सर्ग का अर्थ इनकी सुख - लोलुपता व दासता से रहित होना है । कषाय, संसार और कर्म - व्युत्सर्ग का अर्थ है - इनकी आसक्ति, राग, ममत्व से रहित होना, इनसे प्रभावित नहीं होना है अर्थात् देहातीत और लोकातीत होना है।
देह में अहंत्व ( मैं - पन) व अपनत्व (ममत्व) होने से देहाभिमान उत्पन्न होता है । देहाभिमान से शरीर और संसार से सुख लेने की लालसा उत्पन्न होती
कायोत्सर्ग व व्युत्सर्ग 27
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org