Book Title: Kayotsarga
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 10
________________ प्राक्कथन उत्तराध्ययन सूत्र के छब्बीसवें अध्ययन सामाचारी की गाथा चवालीस से सैंतालीस में साधु के लिए रात्रि की दूसरी प्रहर में ध्यान करना एवं चौथे प्रहर के चौथे भाग में कायोत्सर्ग करना कहा है। इससे यह प्रमाणित होता है कि ध्यान और कायोत्सर्ग अलग-अलग हैं, एक नहीं है, परन्तु वर्तमान में प्रायः ध्यान को ही कायोत्सर्ग मान लिया गया है। जबकि उत्तराध्ययन सूत्र, तत्त्वार्थ सूत्र आदि ग्रन्थों में ध्यान और कायोत्सर्ग, इन दोनों को स्पष्टत: अलग-अलग तप कहा है। इन दोनों की अपनी-अपनी विशेषता एवं महत्त्व हैं। यहाँ इसे प्रकट करने के लिए पहले दोनों तपों का संक्षेप में वर्णन करते हैं। तप दो प्रकार का है : बाह्य तप और आभ्यंतर तप। बाह्य तप के छ: भेद (1) अनशन-इन्द्रियों को अपने-अपने आहार से अर्थात् उनके विषय-भोगों को ग्रहण करने से रोकना; आहार का त्याग करना। (2) उणोदरी-जो आहार (भोग) करना पड़े, उसे जितना बन सके उतना कम करना। (3) वृत्तिपरिसंख्यान-भोग वृत्तियों का संयम करना, नियंत्रण करना। (4) रसपरित्याग-जो संयमित व सीमित विषय सेवन किए जायें उनमें भी रस न लेना। (5) कायक्लेश-शरीर के लिए प्रतिकूल स्थितियों को व आए हुए कष्टों को समभाव से सहन करना। (6) प्रतिसंलीनता-बाह्य पदार्थ व परिस्थितियों में लीनता को छोड़कर स्व में लीन होना। आत्मनिरीक्षण (प्रतिलेखन) करना । आभ्यंतर तप के भी छ: भेद हैं। (7) प्रायश्चित्त-आत्मनिरीक्षण (कषाय-प्रतिलेखना) करना व जिन दोषों का ज्ञान हो, उन्हें पश्चात्तापपूर्वक दूर करना। प्राक्कथन 9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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