Book Title: Kayotsarga
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 15
________________ दुःखों का कारण मनोज्ञ विषयों के प्रति राग और अमनोज्ञ विषयों के प्रति द्वेष करना है। राग और द्वेष से ही संस्कारों का निर्माण अर्थात् कर्म-बन्ध होता है। अतः समस्त दोषों, दुःखों एवं बन्धनों से मुक्त होने के लिए राग-द्वेष रहित, वीतराग होना अनिवार्य है। वीतराग होने का सरलतम उपाय कायोत्सर्ग की साधना है और कायोत्सर्ग की उपलब्धि के लिए विरक्ति, ध्यान साधना है। ध्यान और कायोत्सर्ग साधना से राग, द्वेष, मोह आदि समस्त दोषों से, इनसे उत्पन्न होने वाले समस्त दु:खों एवं कर्म-बन्धनों से सदा के लिए मुक्ति कैसे होती है तथा अमरत्व, निर्वाण व मोक्ष की अनुभूति कैसे होती है? प्रस्तुत पुस्तक में इसका वैज्ञानिक रूप से विश्लेषण एवं विवेचन है। इस पुस्तक में कायोत्सर्ग के लेख समय-समय पर 'स्वान्तःसुखाय' रूप में लिखे गये हैं, अत: इनमें पुनरावृत्ति होना सम्भव है, परन्तु यह पुनरावृत्ति विषय को पुष्ट करने में उपयोगी है और कायोत्सर्ग के मूल विषय के अतिरिक्त अन्य लेख कायोत्सर्ग के अलग-अलग पक्षों को पुष्ट करने की दृष्टि से स्वतन्त्र रूप से लिखे गये हैं, अत: विषय की क्रमबद्धता भंग न हो जाये, इसे दृष्टि में रखते हुए लेखों को यथावत् दिया गया है। "इणमेव णिग्गंथं पावयणं सच्चं णीसंक' वीतराग वाणी सत्य है, तथ्य है। . हमें इसमें लेशमात्र भी संशय नहीं है। केवल प्रचलित अर्थ, जो वीतरागतापरक नहीं है, उसके सही अर्थ खोजने के लिए प्रयास किया गया है। अल्पज्ञ होने के कारण यदि जिन, जिनोपासक गुरु व जिनोपदिष्ट प्रवचन की अत्यल्प भी अवज्ञा हुई हो तो मिथ्या में दुष्कृतम्।। इस कृति में जो निष्कर्ष दिए हैं, वे जैनागम एवं कर्म-सिद्धान्त के ग्रन्थों में प्रतिपादित तथ्यों के आधार पर स्थापित हैं। मैंने लेखन में तटस्थ एवं सन्तुलित दृष्टिकोण अपनाने का एवं भाषा में संयत रहने का प्रयास किया है । तथापि मेरे क्षयोपशमिक ज्ञान में कमी या भूल होना सम्भव है, अत: मैं उन सभी आगमज्ञ विद्वानों, तथ्य-चिन्तकों एवं विचारकों के सुझावों, समीक्षाओं, समालोचनाओं एवं मार्गदर्शन का अभारी रहँगा, जो प्रस्तुत कृति का तटस्थ भाव से अध्ययन कर अपने मन्तव्य से मुझे अवगत करायेंगे। मेरे जीवन-निर्माण एवं आध्यात्मिक रुचि जागृत करने में आचार्यप्रवर श्री हस्तीमलजी म.सा. की महती कृपा रही है। आज मैं जो भी हूँ, सब उन्हीं की देन है। श्री देवेन्द्रराज मेहता से गत अनेक वर्षों से मेरा निकट का सम्पर्क रहा है। आप लेखन के लिए सतत प्रेरणा देते रहे हैं तथा प्राकृत भारती अकादमी के 14 कायोत्सर्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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