Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 28
________________ प्रस्तावना बिना अनुभागकी प्रधानतासे उत्कर्षण और अपकर्षणकी मीमांसा की जाती है वह सद्भावसंज्ञक प्ररूपणा कहलाती है । यह सूक्ष्मस्वरूप होती है। उनमें प्रथम प्ररूपणाके अनुसार विचार करते हुए लिखा है कि उदयावलिमें प्रविष्ट हुए अनुभागको छोड़कर शेष सब अनुभागस्पर्धकों का अपकर्षण और उत्कर्षण होना सम्भव है । परन्तु परमार्थसे यह सम्भव नहीं है, क्योंकि अनुभागविषयक अपकर्षण और उत्कर्षणकी जघन्य अतिस्थापना और जघन्य निक्ष पप्रमाण स्पर्धकों को छोड़कर शेष स्पर्धकों में उनकी प्रवृत्ति होती है । अतः बन्धानुलोम प्ररूपणाको प्रकृतमें स्थूलस्वरूप कहा गया है । सद्भावप्ररूपणाकी अपेक्षा विचार करनेपर प्रथम स्पर्धकसे लेकर अनन्त स्पर्धकोंका अपकर्षण नहीं होता, क्योंकि उनकी अतिस्थापना और निक्षेपका प्राप्त होना सम्भव नहीं है, इसलिए जघन्य अतिस्थापना और जघन्य निक्षेपप्रमाण अनुभागस्पर्धकोंको छोड़ कर इनसे ऊपर के स्पर्धकोंका अपकर्षण होता है । यह अपकर्षणविषयक सद्भावप्ररूपणा है जो सूक्ष्मस्वरूप है । २७ उत्कर्षणकी अपेक्षा विचार करनेपर अन्तिम स्पर्धकका उत्कर्षण नहीं होता। इस प्रकार इस स्पर्धकसे अनन्त स्पर्धक नीचे उतर कर जो स्पर्धक अवस्थित हैं उन सबका उत्कर्षण हो सकता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इसीलिये इसे सूक्ष्मस्वरूप स्वीकार किया गया है । आगे इनकी अल्पबहुत्वविधिकी प्ररूपणा करते हुए (१०७) १६० तीसरी भाष्यगाथा द्वारा उपशम और क्षपकश्रेणिमें अपकर्षण, उत्कर्षण और अवस्थानविषयक अल्पबहुत्वको स्पष्ट किया गया है । यहाँ (१०४) १५७ संख्याक मूल गाथामें वृद्धि और हानि ये शब्द आये हैं सो उनसे क्रमशः उत्कर्षण और अपकर्षणका ग्रहण किया गया है । तथा जिन स्पर्धकोंका उत्कर्षण और अपकर्षण नहीं होता उनकी अवस्थान संज्ञा है । आगे (१०८) १६१ संख्याक चौथी भाष्य गाथा द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि कृष्टि करणसे रहित कर्मोंमें अपवर्तना और उद्वर्तना दोनों होते हैं । कृष्टिकरणमें अपवर्तना ही होती है, क्योंकि कृष्टिकरणसे लेकर ऊपर सर्वत्र उद्वर्तना नहीं होती । यह क्षपकश्रेणिकी अपेक्षा जानना चाहिये । उपशमश्रेणिमें भी इसी प्रकार जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि उपशमश्रेणिमें उतरते समय सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयसे लेकर अनिवृत्तिकरणके प्रथम समय तक अपवर्तना ही होती है । पुनः इससे नीचे उतरते हुए सर्वत्र अपवर्तना और उद्वर्तना दोनों ही होते हैं । उपशमना अधिकार में सूक्ष्मसाम्परायमें जो मोहनीयकी उद्वर्तना कही गई है सो वह शक्तिकी अपेक्षा कही गई है । इस प्रकार प्रकृतमें सात मूल गाथाओं और उनकी भाष्यगाथाओंकी विवेचना कर पहले जो अश्वकर्णकरणकी प्ररूपणाको स्थगित कर आये हैं, आगे उसकी प्ररूपणा करते हैंअश्वकर्णकरणप्ररूपणा अश्वकर्णकरणके तीन पर्यायवाची नाम हैं-अश्वकरण, आदोलकरण और उद्वर्तनअपवर्तनकरण । यह अश्वके कर्णके समान होता है, अतः इसकी अश्वकर्णकरण संज्ञा है । जैसे घोड़े कान मूलसे लेकर दोनों ओर क्रमसे घटते जाते हैं वैसे ही क्रोध संज्वलनसे लेकर अनुभाग पर्धक रचना क्रमसे अनन्तगुणी हीन होती जाती है, इसी कारण इसकी संज्ञा अश्वकर्णकरण है । आदोल हिंडोलनाको कहते हैं । उसके समान करणकी आदोलकरण संज्ञा है । जैसे हिडोले के खम्भे और रस्सी अन्तरालमें कर्णरेखाके आकाररूपसे दिखाई देते है उसी प्रकार यहाँपर भी क्रोधादि कषायों के अनुभाग की रचना क्रमसे दोनों ओर घटती हुई दिखाई देती है, इसलिए इसकी आदोलकरण संज्ञा है । इसी प्रकार, अपवर्तना उद्वर्तनाकरण यह भी इसका सार्थक नाम है।

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