Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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प्रस्तावना
उत्कर्षण किया उसकी नीचे एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण शक्तिस्थिति गल गई है, इसलिये उत्कृष्ट निक्षेपमेंसे इतनी स्थिति ये कम हो गई है, अतः इस विधिसे विचार करनेपर प्रकृतमें उत्कृष्ट निक्षेप चार हजार वर्ष और एक समय अधिक एक आवलि कम चालीस कोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण प्राप्त होता है यह सिद्ध हुआ।
_यहाँ प्रकृत अतिस्थापना कितनी प्राप्त होगी इसका विचार करनेपर वह एक समय अधिक एक आवलि कम चार हजार वर्षप्रमाण प्राप्त होती है। कैसे ? वही कहते हैं-जिस समय यह जीव प्राक्तन स्थितिका उत्कर्षण कर रहा है उस समय तक उस स्थितिमें से एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण स्थिति गल गई है, अतः तत्काल जिस उत्कृष्ट स्थितिबन्धमें वह प्राक्तन विवक्षित स्थितिका उत्कर्षण कर रहा है उसकी उत्कृष्ट आबाधाकालमेंसे एक समय अधिक एक आवलि कम हो जानेसे उत्कृष्ट अतिस्थापना एक समय अधिक एक आवलि कम चार हजार वर्ष प्रमाण प्राप्त होती है यह निश्चित होता है । यह कषायाभूतचूर्णि और उसकी जयधवला टीकाका अभिप्राय है।
किन्तु श्वेताम्बर कर्मप्रकृतिमें जघन्य और उत्कृष्ट निक्षेपका प्रमाण उक्त प्रमाण मान कर भी उसे घटित करनेकी प्रक्रिया भिन्न प्रकारसे स्वीकार की गई है। उसकी मूल गाथा है
आवलि असंखभागाई जाव कम्मट्रिइ त्ति णिक्खेवो।
समउत्तरावलियाए साबाहाए भवे ऊण ॥२॥उपशामना अ० इसका आशय है कि आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितियाँ जघन्य निक्षेपरूप होती हैं और आबाधासहित एक समय अधिक एक आवलिकम उत्कृष्ट स्थितियाँ उत्कृष्ट निक्षेपरूप होती हैं।
यहां इसकी चूर्णिमें लिखा है कि जघन्य निक्षेपको प्राप्त करनेके लिये सत्त्वस्थितिमेंसे एक आवलिके असंख्यातवें भागसे अधिक एक आवलिप्रमाण स्थिति नीचे उतरकर जिस स्थितिका उद्वर्तन करता है उसकी अतिस्थापना एक आवलिप्रमाण और निक्षेप आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है। पुनः इसके आगे अतिस्थापना एक आवलिप्रमाण ही रहती है मात्र उत्तरोत्तत्तर नीचेकी स्थितियोंका उत्कर्षण करानेपर निक्षेप बढ़ता जाता है। इस विधिसे निक्षेप उत्कृष्ट आबाधासहित एक समय अधिक एक आवलिकम उत्कृष्ट कर्मस्थितिप्रमाण बन जाता है । इसकी चूणिमें कहा भी है
बंधावलियाए गयाए बितियसमए उवटेति । एवं समउत्तरिआ आवलिया गया, अबाहाए निक्खेवो णत्थि त्ति अबाहा य तहा, तेण समउत्तराए आवलिआए साबाहाए ऊणा भवति ।
इसपर विचार करनेपर भी वही आशय फलित होता है जिसे क० चू० और उसकी जयधवला टीकामें स्वीकार किया गया है । किन्तु
मलयगिरिने इसकी इस प्रकार व्याख्या की है
अबाधोपरिस्थस्थितीनामुद्वर्तना भवति। तत्राबाधाया उपरितने स्थितिस्थाने उद्वर्त्यमानेऽबाधाया उपरि दलिकनिक्षेपो भवति नाबाधाया मध्येऽपि, उद्वर्त्यमानदलिकस्थोद्वर्त्तमानस्थितेरूध्वंमेव निक्षेपात् । तत्राप्युद्वय॑मानस्थितरुपरि. आवलिकामात्रा स्थितीरतिक्रम्योपरितनीषु स्थितीषु सर्वासु दलिकनिक्षेपो भवति । अतोऽतीत्थापनावलिकामुदय॑मानां च समयमात्रां स्थितिमबाधां च वर्जयित्वा शेषा सर्वापि कर्मस्थितिरुत्कृष्टो दलिकनिक्षेपविषयः।
अबाधाके ऊपरकी स्थितियोंकी उद्वर्तना होती है। उसमें भी अबाधाके ऊपरकी स्थितिस्थानके उद्वर्तना करनेपर अबाधाके ऊपर दलिकका निक्षेप होता है, अबाधामें नहीं, क्योंकि