Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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संख्याक भाष्यगाथा द्वारा संक्रम और उत्कर्षणके विषयमें प्रकाश डालते हुए बतलाया गया है कि जिस कर्मका संक्रम और स्थिति अनुभागकी अपेक्षा उत्कर्षण होता है वह भी एक आवलि काल तक तदवस्थ रहता है । तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार नूतन बन्ध अपने बन्ध समय से लेकर एक आवलि कालतक तदवस्थ रहता है उसी प्रकार संक्रमित और उत्कर्षित होनेवाले द्रव्यके विषय में भी जानना चाहिये । उनका एक आवलि काल तक दूसरे प्रकारकी क्रियारूप परिणमन नहीं होता, उतने काल तक न तो उनका उत्कर्षण ही हो सकता है, न अपकर्षण ही हो सकता है और न ही संक्रमण हो सकता है । (१०१) १५४ संख्याक तीसरी भाष्यगाथा द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि जिस प्रदेशपुञ्जका अपकर्षण होता है वह अपने अपकर्षण होनेके प्रथम समय के बाद अनन्तर समयमें ही उसका उत्कर्षण भी हो सकता है, अपकर्षण भी हो सकता है, संक्रमण भी हो सकता है, उदय भी हो सकता है और ये सब न होकर वह अपकर्षित प्रदेशपुञ्ज तदवस्थ भी रह सकता है । यहाँ चूर्णिसूत्र में जो 'द्विदीहि वा अणुभागेहिं वा' पद आया है सो उसका यह आशय है कि जो कर्मप्रदेशोंका अपकर्षण होता है वह स्थिति और अनुभागमुखसे ही होता है ।
जयधवला
(१०५) १५५ संख्याक मूल गाथा स्थिति और अनुभागविषयक अपकर्षण और उत्कर्षण के जघन्य और उत्कृष्ट निक्षेप और अतिस्थापनाके प्रमाणको सूचित करती है । इसकी (१०६) १५६ संख्याक एक भाष्यगाथा है । इसमें जितने पद आये हैं उनका आशय इस प्रकार है
(१) एक स्थिति बिशेषका उत्कर्षण जघन्यसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिविशेषों में होता है । यथा - जिसने प्राक्तन सत्कर्मकी अग्रस्थितिसे एक आवलिके असंख्यातवें भागसे अधिक एक आवलिप्रमाण अधिक स्थिति बन्ध किया है वह प्राक्तन अग्रस्थितिका उत्कर्षण करते हुए उसके आगे एक आवलिप्रमाण स्थितिको अतिस्थापनारूपसे स्थापित करके उसके आगे अन्तिम एक आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितियोंमें उस अग्रस्थितिका निक्षेप करता है । ( यहाँ निर्व्याघात विषयक प्ररूपणा होनेसे अतिस्थापना एक आवलिप्रमाण कही गई है । )
यह जघन्य निक्षेप । पुनः इससे आगे निक्षेपमें उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है । किन्तु आबाधा ऊपरकी स्थितिका उत्कर्षण करनेपर अतिस्थापना सर्वत्र एक आवलिप्रमाण ही रहती है । मात्र प्राक्तन स्थिति के आबाधाके भीतरकी सत्त्वस्थितिका उत्कर्षण करनेपर यथा सम्भव स्थान से लेकर अतिस्थापना में वृद्धि होती जाती है । इस विधिसे जो उत्कृष्ट निक्षेप और उत्कृष्ट अतिस्थापना प्राप्त होती है उसका निर्देश करते हुए बतलाया है कि कषायोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट निक्षेप चार हजार वर्षं और एक समय अधिक एक आवलिसे न्यून चालीसकोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण प्राप्त होता है तथा चार हजार वर्ष मेंसे एक समय अधिक एक आवलिकम कर देनेपर उत्कृष्ट अतिस्थापना एक समय अधिक एक आवलिकम चार हजार वर्ष प्रमाण प्राप्त होती है । खुलासा इस प्रकार है
किसी जीवने उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेके बाद बन्धाबलिके व्यतीत होने के प्रथम समयमें उसके प्रदेशपुंजका अपकर्षण कर नीचे निक्षिप्त किया । पुनः दूसरे समय में उदयावलिके बाहरका प्रथम निषेक उदयावलिमें प्रविष्ट हो गया है, इसलिये उससे अगले निषेकको अपकर्षण करनेके दूसरे समय में उत्कर्षित करके उस समय उत्कृष्ट स्थितिके साथ बन्धको प्राप्त होनेवाले कर्मकी आबाधाके बादकी स्थितियों में निक्षिप्त करनेपर उक्त प्रमाण उत्कृष्ट निक्षेप चार हजार वर्ष और एक समय अधिक एक आवलिकम चालीस कोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण प्राप्त होता है । यहाँ उत्कर्षित प्रदेशपुञ्जका तत्काल बन्धस्थितिके चार हजार वर्षप्रमाण नराबाधामें निक्षेप नहीं हुआ है, इसलिये उत्कृष्ट निक्षेपमें से चार हजार वर्षं तो ये कम हो गये हैं और जिस विवक्षित स्थिति के प्रदेश का