Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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[ कर्म सिद्धान्त
संसारी आत्मा के प्रत्येक प्रदेश पर अनन्तानन्त कर्म परमाणु चिपके हुये हैं। अग्नि के तपने और घन से पीटने पर सुइयों का समूह एकीभूत हो जाता है। इसी भाँति आत्मा और कर्म का सम्बन्ध संश्लिष्ट है । यह सम्बन्ध जड़ चेतन को एक करने वाला तादात्म्य सम्बन्ध नहीं किन्तु क्षीर-नीर का सम्बन्ध है। अतः प्रात्मा अमूर्त है यह एकान्त नहीं है। कर्म बंध की अपेक्षा से आत्मा कथंचित् मूर्त भी है। कर्म बंध के कारण :
कर्म संबंध के अनुकूल आत्मा की परिणति या योग्यता ही बंध का कारण है। भगवान् महावीर से गौतम स्वामी ने पूछा-भगवन् ! क्या जीव कांक्षा मोहनीय कर्म का बन्धन करता है ?
भगवान् गौतम ! हाँ, बन्धन करता है। गौतम -वह किन कारणों से बंधन करता है ? भगवान्–गौतम ! उसके दो कारण हैं । प्रमाद व योग । गौतम -भगवन् ! प्रमाद किससे उत्पन्न होता है ? भगवान्-योग से। गौतम -योग किससे उत्पन्न होता है ? भगवान्-वीर्य से । गौतम -वीर्य किससे उत्पन्न होता है ? भगवान्-वीर्य शरीर से उत्पन्न होता है । गौतम –शरीर किससे उत्पन्न होता है ? भगवान्–जीव से।
अर्थात जीव शरीर का निर्माता है। क्रियात्मक वीर्य का साधन शरीर है। शरीरधारी जीव ही प्रमाद और योग के द्वारा कर्म (कांक्षा मोह) का बंधन करता है । 'स्थानांग' सूत्र और 'पन्नवणा' सूत्र में कर्म बंध के क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कारण बताये हैं।
गौतम-भगवन् ! जीव कर्म बंध कैसे करता है ?
भगवान ने प्रत्युत्तर में कहा कि गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्म के तीव्र उदय से दर्शनावरणीय कर्म का तीव्र उदय होता है । दर्शनावरणीय कर्म के तीव्र उदय से दर्शन मोह का उदय होता है । दर्शन मोह के तीव्र उदय से मिथ्यात्व का उदय होता है और मिथ्यात्व के उदय से जीव आठ प्रकार के कर्मों का बंधन करता है।
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