Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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कर्म सिद्धान्त और प्राधुनिक विज्ञान ]
[ ३१६ मंगल के बीच तथा मंगल से कुछ पीछे तक के अन्तरिक्ष में "तैरते अन्तरिक्ष नगरों" की सम्भावना को भी गम्भीरता से ले रहे हैं, अर्थात् ब्रह्माण्डों में अनन्त जीवन है । अनंतानन्त जीवों में एक-एक जीव के अनंतानन्त जन्मों में एक-एक जन्म में अनंतानन्त कर्म हैं।
__समस्त विश्व एक ही 'शक्ति' और 'शक्तिमान' का उल्लसित रूप है । सभी चिन्मय हैं। परम शिव सर्वथा स्वतंत्र होकर बिना किसी की सहायता से, केवल अपनी ही 'शक्ति' से, सृष्टि को लीला के लिए उद्भाषित करते हैं और लीला का संवरण भी कर लेते हैं । वस्तुतः यहीं आकर साधक को "एकमेवाद्वितीयं नेह नानास्ति किंचन" तथा "सर्वं खल्विद ब्रह्म" का वास्तविक अनुभव होता है । 'माया' या 'कर्म' ब्रह्मशक्ति, ब्रह्माश्रित है, पर 'ब्रह्म' सत्य है, परन्तु विचारदृष्टि से माया या कर्म ‘सदसद्विलक्षण' है, किन्तु माया या कर्म को स्वीकार कर उसको ब्रह्ममयी, नित्या और सत्यस्वरूपा मानने से 'ब्रह्म' और 'माया' या 'कर्म' की एकरसता हो जाती है, यह एकरसता माया या कर्म को त्याग कर या तुच्छ समझकर नहीं बल्कि उसको अपनी ही शक्ति समझने में है, क्योंकि मूल प्रकृति 'अव्यक्त' है । कर्म की गति अनादि है, अविद्या अनादि है। अविद्या या कर्म तथा जीव का सम्बन्ध भी अनादि है, परन्तु ये कर्मगति, अविद्या या कर्म सम्बन्ध, अनित्य हैं। इनका नाश यद्यपि परिणाम के द्वारा ही होता है तथापि नाश के लिए भी सृष्टि का होना आवश्यक है। अव्यक्त रूप के रहने से सृष्टि नहीं हो सकती तो फिर सृष्टि होती कैसे है ? वास्तव में 'कार्य' वस्तुतः 'कारण' में वर्तमान है, अर्थात् कारण व्यापार के पूर्व 'कार्य' कारण में अव्यक्त रूप में रहता है। कार्य की उत्पत्ति और नाश का अर्थ 'उस विषय की सत्ता का होना या न होना' नहीं है । कारण से कार्य की उत्पत्ति का अर्थ है-'अव्यक्त से व्यक्त होना' तथा कार्य के नाश का अर्थ है-'व्यक्त से अव्यक्त होना।' यह भी एक प्रकार का परिणाम है, जिसके कारण अव्यक्त मूला प्रकृति में अव्यक्त रूप में वर्तमान वस्तु व्यक्त हो जाती है, अर्थात् न किसी को 'उत्पत्ति' और न किसी का नाश होता है; केवल स्वरूप में परिवर्तन होता है, वस्तु में नहीं; यानी समस्त विश्वरूप कार्य मूल प्रकृति रूप कारण में अव्यक्तावस्था में वर्तमान रहता है।
भौतिक विज्ञान के अनुसार जगत् में किसी भी पदार्थ का नाश नहीं होता, रूपान्तर मात्र होता है। विज्ञान शक्ति के संरक्षण-सिद्धान्त में, पदार्थ की अनश्वरता के सिद्धान्त में विश्वास करता है। जब जगत के जड़ पदार्थों की यह स्थिति है, तब इन्हीं के अभिन्न-निमित्त-उपादान कारण चेतन आत्मतत्त्व की अनश्वरता सैमुतिक न्याय से सुतरां सत्य होनी चाहिये ।
. श्री अरविन्द द्वारा चेतना के विभिन्न स्तरों की परिकल्पना के साथ-साथ
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