Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 329
________________ ३२४ ] [ कर्म सिद्धान्त है। ज्यों-ज्यों कर्मों का उदय होता जाता है, त्यों-त्यों कर्म आत्मा से अलग होते जाते हैं । इसी प्रक्रिया का नाम निर्जरा है । जब आत्मा से समस्त कर्म अलग हो जाते हैं तब उसकी जो अवस्था होती है, उसे मोक्ष कहते हैं। वैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर कर्म सिद्धान्त : यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड विद्युत चुम्बकीय तरंगों (Electromagnetic Waves) से ठीक उसी प्रकार भरा पड़ा है जिस प्रकार सम्पूर्ण लोकाकाश कार्मण वर्गणा रूप पुद्गल परमाणुओं से भरा हुआ है । ये तरंगें प्रकाश के वेग से लोकाकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश की ओर गमन करती रहती हैं । इन तरंगों की कम्पन शक्ति बहुत अधिक, यहाँ तक कि X-Rays की कम्पन शक्ति (१०१३ से १७१७ किलो साइकिल प्रति सैकण्ड) से करोड़ों गुनी ज्यादा होती है । तरंगों की आवृत्ति (frequency), n, तथा प्रकाश के वेग (c) में निम्न सम्बन्ध है-(=तरंग की लम्बाई)=Wavelength c=nd अब एक खास आवृत्ति (frequency) की विद्युत चुम्बकीय तरंगों को एक प्राप्तक द्वारा पकड़ने के लिए उसमें एक ऐसे दौलित्र (oscillator) का उपयोग किया जाता है कि यह उन्हीं आवृत्ति पर कार्य कर रहा हो । इस विद्युतीय साम्यावस्था (Electrical resonance) के सिद्धान्त से वे आकाश में व्याप्त तरंगें, प्राप्तक (Receiver) द्वारा आसानी से ग्रहण करली जाता है। ___ठीक यही घटना आत्मा में कार्मण-स्कन्धों के आकर्षित होने में होती है । विचारों या भावों के अनुसार मन, वाणी या शारीरिक क्रियाओं द्वारा आत्मा के प्रदेशों में कम्पन उत्पन्न होते हैं जिसे पहले 'योग' कहा गया है । अर्थात् योग शक्ति से आत्मा में पूर्व से उपस्थित कर्म रूप पुद्गल परमाणुनों (जो आत्मा के प्रदेशों में एक क्षेत्रावगाही होकर पूर्व से प्रवर्तमान थे) में कम्पन होता है। इन कम्पनों की आवृत्ति की न्यूनाधिकता, कषायों की ऋजुता या घनी संक्लेशता के अनुसार होती है । शुभ या अशुभ परिणामों से विभिन्न तरंग लम्बाइयों की तरंगें आत्मा के प्रदेशों से उत्पन्न होती रहती हैं और इस प्रकार की कम्पन क्रिया से इसे एक दौलित्र (oscillator) की भांति मान सकते हैं, जो लोकाकाश में उपस्थित उन्हीं तरंग लम्बाई के लिए साम्य (tunned या resonance) समझा जा सकता है। ऐसी स्थिति में भाव कर्मों के माध्यम से, ठीक उसी प्रकार की तरंगें आत्मा के प्रदेशों से एक क्षेत्रावगाही सम्बन्ध स्थापित कर लेती हैं, और आत्मा अपने स्वभाव गुण के कारण विकृत कर नयी-नयी तरंगें पुन: आत्मा में उत्पन्न करती है । इस तरह यह स्वचालित दौलित्र (self oscillated oscillator) की भांति व्यवहार कर नयी-नयी तरंगों को हमेशा खींचता रहता है । कर्मवाद में यह आस्रव कहा गया है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364