Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 349
________________ [ कर्म सिद्धान्त ३४४ ] समाधान करना चाहा। तब उन परमज्ञानी साधु ने आरामशोभा के पूर्वजन्म को संक्षेप में इस प्रकार कहा "इस जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में चंपानगरी है । वहाँ कुलधर नामक एक सेठ था । उसकी पत्नी का नाम कुलानन्दा था । उनके प्राठ पुत्रियां हुईं। आठवीं का नाम दुर्भागी रखा गया । बहुत समय तक उसका विवाह नहीं हुआ । किन्तु संयोग से एक बार कोई परदेशी युवक सेठ कुलधर की दुकान पर आया । किसी प्रकार सेठ ने उस युवक के साथ दुर्भागी का विवाह कर दिया । किन्तु अपने घर को वापिस लौटते हुए वह युवक दुर्भागी को अकेला सोता हुआ छोड़कर भाग गया । जागने पर दुर्भागी को बहुत दुःख हुआ । किन्तु इसे भी अपने कर्मों का फल मानती हुई वह किसी प्रकार उज्जयिनी के मणिभद्र सेठ के यहाँ पहुँच गयी । वहाँ उसने अपने शील और व्यवहार से सेठ के परिवार का दिल जीत लिया । वह सेठ के धार्मिक कार्यों में भी मदद करने लगी । उसे जो भी पैसे सेठ से मिलते उसकी सामग्री खरीदकर वह गरीबों में बांट देती । उसका सारा समय देवपूजा और गुरुपूजा में ही व्यतीत होने लगा । अचानक मंदिर में लगा हुआ बगीचा सूखने लगा । सेठ ने बहुत उपाय किये, किन्तु कोई लाभ नहीं हुआ । तब दुर्भागी ने इस कार्य को अपने ऊपर लिया और प्रतिज्ञा की कि जब तक यह बगीचा हरा-भरा नहीं हो जायेगा तब तब वह अन्न ग्रहण नहीं करेगी। उसकी इस तपस्या से शासनदेवी प्रसन्न हुई और उसने बगीचे को हरा-भरा कर दिया। इससे दुर्भागी का मन धर्म में और रम गया । वह कठोर तपस्याएँ करने लगी । अन्त में उसने आत्म-चिंतन करते हुए अपने प्राण त्यागे । वहाँ से वह स्वर्ग में उत्पन्न हुई । वहाँ पर भी धर्म-भावना के प्रति रुचि होने के कारण उसे मनुष्य जन्म मिला और वह अग्निशर्मा ब्राह्मण के घर विद्युत्प्रभा नाम की पुत्री हुई । उस दुर्भागी ने अपने जीवन का पूर्वभाग सदाचार रहित परिवार में व्यतीत किया था, अतः उसके विचारों और कार्यों में सद्भावना नहीं थी । इससे उसने दुष्कर्मों का संचय किया । उन्हीं के कारण उसे विद्युत्प्रभा के जीवन में प्रारम्भ में बहुत दुःख भोगने पड़े हैं । किन्तु दुर्भागी का अंतिम जीवन एक धार्मिक परिवार में व्यतीत हुआ । उसने स्वयं धार्मिक साधना की । इसलिए आरामशोभा के रूप से उसे राजमहलों का सुख मिला । गरीबों को दान देने और बगीचा हरा-भरा करने के कारण से आरामशोभा को जादुई बगीचे का सुख मिला है । और अब महारानी आरामशोभा धार्मिक चिन्तन कर रही है तथा उसके अनुरूप अपना जीवन व्यतीत करेगी तो वह स्वर्गों के सख को भोगकर क्रमशः मोक्षपद भी पा सकेगी ।" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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