Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 353
________________ ३४८ ] [ कर्म सिद्धान्त को पूर्ण करके सुना दिया । चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त अपने पूर्व भव के भाई को माली के रूप में समझ कर खेद खिन्न होकर मूर्छित हो गया । राजपुरुषों ने माली को पकड़ लिया और त्रास देने लगे तो माली ने सही स्थिति बतला दी। राजपुरुष मुनि की सेवा में उपस्थित हुये और राजा के मूछित होने की बात कहकर मुनिराज को राज्य सभा में लिवालाये । ___मुनि का ओजपूर्ण शरीर और दैदीप्यमान ललाट देखकर ब्रह्मदत्त स्वस्थ्य हो गये किन्तु अपने भाई को मुनि वेष में देख कर खिन्नमना होकर कहने लगे कि बन्धुवर, पूर्व भव की आपकी त्याग-तपश्चर्या का क्या यही फल है कि आपको भिक्षा के लिये इधर-उधर भटकना पड़ रहा है। मुझको राज्य वैभव और सम्पदा ने वरण किया है किन्तु आपके यह दरिद्रता क्यों पल्ले पड़ी ? मुझे आपके इस कष्टप्रद जीवन को देखकर आश्चर्य भी हो रहा है और दुःख भी। अब आपको भिक्षा जीवी रहने की आवश्यकता नहीं है । मेरी प्रतिज्ञा के अनुसार मेरा आधा राज्य वैभव आपके हिस्से में है। "राजेन्द्र ! जिस राज्य वैभव में आप अनुरक्त हैं, उससे मैं भी परिचित हूँ" चित्त मुनि कहने लगे-"मेरा जन्म भी एक ऐश्वर्य व वैभव सम्पन्न श्रेष्ठी कुल में हुआ है अतः मुझे भिखारी या दरिद्री समझने की भूल मत करो । एक महात्मा के संयोग से मेरे त्याग वैराग्य के संस्कार जागृत हो गये और सब वैभव सम्पदा को छोड़ कर मैंने अक्षय सुख और शान्ति का यह राजमार्ग अपनाया है । राजन् ! आपको यह राज्य वैभव क्यों मिला, इस पर गहराई से चिन्तन करो। हम दोनों ने पूर्व भव में चित्त और संभूति के रूप में मुनिव्रत अंगीकार कर कठिन साधना की थी जिससे हमारा जीवन बड़ा निर्मल हो गया, कई सिद्धियाँ भी हमको सहज ही प्राप्त हो गयीं । चक्रवर्ती सनतकुमार हमारे दर्शन करने आया और त्याग-वैराग्य की अमिट छाप अपने हृदय पर लेकर वापस चला गया। चक्रवर्ती का राज्य वैभव भोग कर भी वह उसमें उलझा नहीं और विरक्त होकर संयम जीवन अंगीकार कर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गया । आप उसके राज्य वैभव और राजरानियों के रूप सौन्दर्य को देखकर पासक्त हो गये और यह निदान (दुःस्संकल्प) कर लिया कि मेरी साधना का फल मुझे मिले तो मुझे भी इसी तरह का राज्य वैभव और काम भोगों के साधन प्राप्त हों । त्याग तपश्चर्या का फल तो अनिर्वचनीय आनन्द और अक्षय सख है किन्तु आपने निदान करके हीरे को कौड़ियों के मोल बेच दिया जिससे आपको यह राज्य वैभव प्राप्त हा गया। इसमें आत्यन्तिक आसक्ति महान् दुःख का कारण बन सकती है। चक्रवर्ती सनतकुमार का अनुसरण कर आपको इन क्षणिक काम भोगों को स्वेच्छा से छोड़ कर अक्षय सुख और शान्ति का राजमार्ग अपनाना चाहिये अर्थात् मुनि जीवन स्वीकार कर लेना चाहिये।" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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