Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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कर्म और पुरुषार्थ की जैन कथाएँ]
[ ३४६ "प्रार्य ! आपका कथन यथार्थ है । मैं भी समझने को ऐसा ही समझ रहा हूँ।" चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त ने कहा-"दलदल में फंसे हुये गजेन्द्र के समान मैं हूँ कि जिसको किनारा तो दिख रहा है किन्तु दलदल से बाहर निकलने की उसकी इच्छा ही नहीं होती। मैंने पूर्व भव में त्यागी जीवन की मर्यादा का उल्लंघन करके क्रोध किया और फिर निदान कर लिया चक्रवर्ती की सम्पदा के लिये, उसी का यह परिणाम है कि आपके समझाने पर भी और त्यागी जीवन की महत्ता के समझते हुये भी मैं राज्य वैभव की आसक्ति को छोड़ नहीं पा रहा हूँ।" ___"अगर पूर्ण त्यागी जीवन स्वीकार नहीं कर सकते हो तो गृहस्थाश्रम में रहते हुये श्रावक के व्रत नियम ही धारण करलो जिससे आप अधम गति से तो बच सकोगे।" चित्त मुनि ने वैकल्पिक मार्ग बतलाया।
"मुनिवर ! मेरे लिये यह भी शक्य नहीं है।" चक्रवर्ती ब्रह्मदत ने अपनी असमर्थता प्रकट करते हुये उत्तर दिया।
"राजेन्द्र ! पूर्व भवों के स्नेह के कारण मैं चाहता था कि आपको भोगासक्ति के दलदल से बाहर निकालू किन्तु मेरा यह प्रयत्न निष्फल गया, अब जैसी आपकी इच्छा ।" यह कहते हुये चित्त मुनि (पूर्व भव का नाम) वापस लौट गये।
चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त ने काम भोगों के दलदल में फंसे हुये ही आयुष्य पूर्ण किया और सातवीं नरक में गये । महामुनि चित्त ने उग्र साधना और तपश्चर्या की जिससे अन्त में सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गये।
दो बन्धु जो पाँच भवों तक साथ-साथ रहे, चौथे भव में कठिन साधना की वे आसक्ति और विरक्ति के कारण इतने दूर बिछुड़ गये कि एक तो रसातल के अंतिम छोर-सातवीं नरक गये और दूसरे ऊर्ध्व गमन की अंतिम सीमासिद्धशिला-पर जा बिराजे ।
कर्म प्रधान विश्व करि राखा।
जो जस करहि तस फल चाखा ।।
[५] कर्म का भुगतान
श्री चांदमल बाबेल भगवान् श्रेयांसनाथ इस धरती तल पर भव्य जीवों को सन्मार्ग दिखाते हए विचरण कर रहे थे । उस समय दक्षिण भरत में पोतनपुर नामक एक नगर
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