Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 350
________________ कर्म और पुरुषार्थ की जैन कथाएँ ] [ ३४५ ज्ञानी सन्त के इन वचनों को सुनकर जितशत्रु राजा और आरामशोभा रानी ने संसार-त्याग कर वैराग्य जीवन अंगीकार किया ।' [४] दो साधक जो बिछुड़ गये । श्री सुजानमल मेहता साधना, त्याग और तपश्चर्या का लक्ष्य कर्म-निरोध और कर्म-निर्जरा है और अन्ततः अपने शुद्ध स्वरूप को प्रकट कर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होना है। साधकों को ऋद्धि-सिद्धियाँ भी प्राप्त होती हैं किन्तु अगर कोई साधक भौतिक चकाचौंध में फंस कर प्राप्त ऋद्धि-सिद्धियों का लक्ष्य भौतिक ऐश्वर्य प्राप्त करना बना लेता है तो वह अमृत में विष घोल देता है और परिणामतः अवनति के गहरे कूप में चला जाता है । ऐसे ही साधकों के लिये कहा जाता है 'तपेश्वरी सो राजेश्वरी और राजेश्वरी सो नरकेश्वरी ।' कांपिल्य नगर में जन्मे चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त ने भी अपने पूर्व भव में उत्कृष्ट साधना की थी और इसी कारण वे छः खण्ड के अधिपति बने थे । भौतिक ऋद्धि सम्पदा उनके प्रांगन में कील्लोलें करती थीं, सुन्दर और मनोहर रानियों से उनका अन्तःपुर सुशोभित था और सांसारिक काम भोगों को उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया था। इतना कुछ होते हुये भी वे अपने जीवन में रिक्तता का अनुभव करते थे। वे अपने अन्तर में एक टीस अनुभव करते थे मानो उनका एक अनन्य प्रेमी बिछुड़ गया हो। इस गहरी चिन्ता ही चिन्ता में उनको अपने पूर्व भवों की स्मृति (जातिस्मरण ज्ञान) हो गयी। उनकी स्मृति अपने पूर्व के लगातार पाँच भवों तक पहुंच गई और स्मरण हो गया कि वे दो भाई थे जो साथ-साथ जन्म लेते थे और मृत्यु को प्राप्त होते थे। प्रथम भव में वे दशार्ण देश में दास के रूप में थे, दूसरे भव में वे कालिंजर पर्वत पर मग के रूप में थे, तीसरे भव में मातृ गंगा नदी के तट पर हंस के रूप में थे और चौथे भव में काशी नगर में एक चाण्डाल के घर में चित्त और संभूति के रूप में जन्मे थे। काशी नरेश के नमूची नाम का प्रधान था, जो बड़ा बुद्धिमान और संगीत शास्त्री था, साथ ही था महान व्यभिचारी। उसने राज्य-अन्तःपुर में भी इस दोष का सेवन किया, परिणामतः राजा ने उसको मृत्यु दण्ड दे दिया। फांसी के तख्ते पर चढ़ाते समय बधिक (चित्त और संभूति के पिता) को दया आ गई १. १२वीं शताब्दी की प्राकृत कथा 'आरामसोहा' का संक्षिप्त रूपान्तर । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org


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