Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 345
________________ ३४० ] [ कर्म सिद्धान्त कराया। किन्तु इस बीच राजा ने अनुभव किया कि सुकुमाल की आँखों में आंसू आये । वह सिंहासन पर अधिक देर तक ठीक से बैठ नहीं सका । भोजन करते समय भी उसने केवल कुछ चावलों को चुन-चुनकर ही खाया । अतः राजा ने सेठानी से इस सबका कारण पूछा । सेठानी ने कहा-"महाराज ! मेरा पुत्र बहुत सुकुमार है ! उसने कभी दिये का प्रकाश नहीं देखा ! जब मैंने आपको दिये से आरती की तो उसकी लौ से कुमार के प्रांसू आ गये । जब मैंने सरसों के दाने आपके ऊपर डालकर आपका सत्कार किया तो सरसों के दाने सिंहासन पर गिर जाने से उनकी चुभन से वह ठीक से आपके साथ नहीं बैठ सका। और सुकुमाल केवल कमल से सुवासित कुछ चावलों का ही भोजन करता है । इसलिए उसने उन्हीं चावलों को बीन-बीन कर खाया है। आप उसकी बातों का बुरा न मानें।" राजा, सुकुमाल की सुकुमारता से और सेठानी के सत्कार से बहुत प्रभावित हुआ । उसने सेठानी की सहायता करते हुए सारे नगर में मुनियों के आगमन पर प्रतिबन्ध लगा दिया। सेठानी अपने पुत्र की सुरक्षा से निश्चिन्त हो गयी। किन्तु संयोग से सुकुमाल के पूर्वजन्म के मामा मुनि सूर्यमित्र ने अपने ज्ञान से जाना कि सुकुमाल की आयु अब केवल तीन दिन शेष रह गयी है । अतः वे राजाज्ञा की चिन्ता न करते हुए नगर के बाहर सेठानी के महल के बगीचे के समीप में आकर ठहर गये । वहीं पर वे श्रावकों को उपदेश देने लगे। एक दिन प्रातःकाल सुकुमाल अपने महल की छत पर भ्रमण कर रहा था कि उसने मुनि के उपदेश सुन लिये। उसे अपने पूर्व-जन्म का स्मरण हो प्राया । अतः उसने मुनिदीक्षा लेने का निश्चय कर लिया। सुकुमाल चुपचाप अपने महल से रस्सी के सहारे नीचे उतरा और पैदल चलते हुए मुनि के समीप पहुँचकर उसने दीक्षा ले ली। और आयु कम जानकर वह तपस्या में लीन हो गया। सुकुमाल की सुकुमारता के कारण महल से लेकर पूरे रास्ते में सुकुमाल के पैरों से रक्त बहने के कारण पैरों के निशान बनते चले गये । नगर के बाहर उस समय एक सियारिनी अपने बच्चों के साथ घूम रही थी। वह रक्त के निशान के साथ-साथ चलती हुई मुनि सुकुमाल के पास पहुंच गयी । वहाँ उसे अपने पूर्व-जन्म का स्मरण हो पाया। तब वह बदला लेने की भावना से सुकुमाल के शरीर को खाने लग गयी । किन्तु वे मुनि परीषह को सहन करते हुए अपनी तपस्या में लीन रहे और उन्होंने शरीर का त्याग करते हुए केवलज्ञान प्राप्त किया। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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