Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 332
________________ जैन कर्म सिद्धान्त और विज्ञान: पारस्परिक अभिगम ] -- [ ३२७ आत्मा के बाह्य अवस्था के परिवर्तन का कारण जैन कर्मसिद्धान्त, आत्मा द्वारा स्वयं किए हुए कर्मों को मानता है । कहा है अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहारण य सुहारण य । अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पट्टय सुपट्टिश्रो ॥ अर्थात् आत्मा ही सुख-दुःख का जनक है और आत्मा ही उनका विनाशक है | सदाचारी सन्मार्ग पर लगा हुआ आत्मा अपना मित्र है और कुमार्ग पर लगा हुआ दुराचारी अपना शत्रु है । वैज्ञानिक न्यूटन का एक नियम यह भी है कि क्रिया और प्रतिक्रिया एक साथ होती रहती है अर्थात् जब जीव कोई कर्म करेगा तो उसकी प्रतिक्रिया उसके किए कर्मानुसार, उसकी प्रात्मा पर अवश्य अंकित होगी । विज्ञान के आविष्कार बेतार के तार (Wireless Telegraphy), रेडियो, टेलीविजन आदि के कार्य से यह निर्विवाद सिद्ध है कि जब कोई कार्य करता है तो समीपवर्ती वायुमंडल में हलन चलन क्रिया उत्पन्न हो जाती है और उससे उत्पन्न लहरें चारों ओर बहुत दूर तक फैल जाती हैं उन्हीं लहरों के पहुँचने से शब्द व आकार बिना तार के रेडियो, टेलीविजन में बहुत दूर-दूर स्थानों पर पहुँच जाते हैं और उन्हें जिस स्थान पर चाहें वहीं पर अंकित कर सकते हैं । इसी प्रकार जब कोई जीव मन, वचन अथवा शरीर से कोई कार्य करता है। तो उसके समीपवर्ती चारों ओर के सूक्ष्म परमाणुओं में हलन चलन क्रिया उत्पन्न हो जाती है । ये सूक्ष्म परमाणु जिन्हें कार्मणत्रर्गणा भी कहा जाता है, आत्मा की ओर आकर्षित होते हुए आत्मा के वास्तविक स्वरूप को ढक लेते हैं । जैन कर्मसिद्धान्त इन कर्म परमाणुओं को स्थूल रूप से ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय नाम की संज्ञा देता हुआ इनकी १५८ प्रकृतियाँ बतलाता है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्म घातिक कर्म कहे जाते हैं क्योंकि इनसे आत्मा का अनन्त ज्ञान, दर्शन व वीर्य श्राच्छादित होकर, कषाय, विषय, विकार, आदि उत्पन्न हो जाते हैं । वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र कर्म आत्मा के गुणों का घात न करने के कारण प्रघातिक कर्म कहलाते हुए भी मुक्ति के मार्ग में बाधक हैं । आठ कर्मों का स्वभाव (प्रकृति) भिन्न-भिन्न होने के कारण प्रकृतिबंध कहलाता है । कर्मबन्ध हो जाने के बाद जब तक फल देकर अलग नहीं हो जाता, तब तक की काल मर्यादा ( आबाधा काल ) स्थितिबन्ध कहलाती है । सब कर्मों में मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थितिबन्ध ( आबाधाकाल ) ७० कोड़ा कोड़ी सागरोपम की मानी गई है और साथ-साथ में यह भी कहा गया है कि चिकने कर्म तो भोगने ही पड़ते हैं । बुरे कर्म अशुभ या कटुक फल देते हैं और शुभ कर्म मधुर फल प्रदान करते हैं । विभिन्न प्रकार के रस ( कटुक या मधुर फल ) को अनुभाग बन्ध कहते हैं और कर्म दलिकों के समूह को प्रदेश बन्ध कहते हैं । बद्ध 1 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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