Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 335
________________ ३३० ] [ कर्म सिद्धान्त तपस्या किस प्रकार कर्म निर्जरा करके आत्मा को 'अकिरिअ' करके सिद्ध बना देती है । चुम्बक में आकर्षण शक्ति होती है परन्तु जब इसको तपा दिया जाता है तो आकर्षण शक्ति नष्ट होकर इसको 'अकिरिअ' बना देती है । इसी प्रकार से कर्मों से आबद्ध प्रात्मा को जब तपस्या रूपी अग्नि से तपा दिया जाता है तो बन्धे हुए कर्म क्षय होकर, आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट होकर अकिरित्र होती हुई सिद्ध अवस्था प्राप्त कर लेती है । आवश्यकता है कर्म सिद्धान्त को समझकर उसके साथ पुरुषार्थ योग को जोड़कर साधना करने की। जहा दड्ढारणं बीयाणं, रण जायंति पुण अंकुरा। कम्म बीएसु दड्ढे, ण जायंति भवांकुरा ॥ अर्थ-जिस प्रकार दग्ध बीज अंकुरित नहीं होते उसी प्रकार कर्म बीजों के दग्ध होने पर भव-भव में जन्म लेने की आवश्यकता नहीं रहती। यादृशं क्रियते कर्म, तादृशं प्राप्यते फलम् । यादृशमुप्यते बीजं, तादृशं भुक्ते फलम् ॥ अर्थ-जीव जिस प्रकार कर्म करता है तदनुसार फल की प्राप्ति होती है । जिस प्रकार बीज का वपन किया जाता है, उसी प्रकार के फल की प्राप्ति सम्भव है। सत्यानुसारिणी लक्ष्मी, कीति त्यागानुसारिणी। अभ्याससारिणी विद्या, बुद्धि कर्मानुसारिणी॥ अर्थ-लक्ष्मी सत्य का अनुसरण करती है । कीर्ति त्याग का अनुगमन करती है । विद्या अभ्यास से ही आती है । तथैव कर्म के अनुसार ही बुद्धि की प्रवृत्ति होती है। तेणे जहा संधि-मुहे गहिए, सकम्मुणा किच्चइ पावकारी। एवं पया पेच्च इहं च लोए, कडाण कम्माण ण मोक्ख अस्थि ॥ -उत्तराध्ययन ४/३ अर्थ-जिस प्रकार संधिमुख पर सेंध लगाते हुए पकड़ा हुआ पापात्मा चोर अपने ही किये हुए कर्मों से दुःख पाता है । उसी प्रकार जीव इस लोक और परलोक में अपने किये हुए अशुभ कर्मों से दुःख पाते हैं, क्योंकि फल भोगे बिना, किये हुए कर्मों से छूटकारा नहीं होता। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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