Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
View full book text
________________
४६
कर्म सिद्धान्त : वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में
डॉ. महावीरसिंह मुडिया
__ जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक संसारी प्रात्मा कर्मों से बद्ध है। यह कर्म बन्ध आत्मा का किसी अमुक समय में नहीं हुआ, अपितु अनादि काल से है । जैसे खान से सोना शुद्ध नहीं निकलता, अपितु अनेक अशुद्धियों से युक्त निकलता है, वैसे ही संसारी आत्माएँ भी कर्म बन्धनों से जकड़ी हुई हैं। .
___सामान्य रूप से जो कुछ किया जाता है, वह कर्म कहलाता है। प्राणी जैसे कर्म करता है, वैसा ही फल भोगता है। कर्म के अनुसार फल को भोगना नियति का क्रम है । परलोक मानने वाले दर्शनों के अनुसार मनुष्य. द्वारा कर्म किये जाने के उपरान्त वे कर्म, जीव के साथ अपना संस्कार छोड़ जाते हैं । ये संस्कार ही भविष्य में प्राणी को अपने पूर्वकृत कर्म के अनुसार फल देते हैं । पूर्व कृत कर्म के संस्कार अच्छे कर्म का अच्छा फल एवं बुरे कर्म का बुरा फल देते हैं । पूर्वकृत कर्म अपना जो संस्कार छोड़ जाते हैं, और उन संस्कारों द्वारा जो प्रवृत्ति होती है, उसमें मूल कारण राग और द्वष होता है। किसी भी कर्म की प्रवृत्ति राग या द्वेष के अभाव में असम्भावित होती है । अतः संस्कार द्वारा प्रवृत्ति एवं प्रवृत्ति द्वारा संस्कार की परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है । यह परम्परा ही संसार कहलाता है।
जैन दर्शन के अनुसार कर्म संस्कार मात्र ही नहीं है, अपितु एक वस्तुभूत पदार्थ है जिसे कार्मण जाति के दलिक या पुद्गल माना गया है । वे दलिक रागी द्वेषी जीव की क्रिया से आकृष्ट होकर जीव के साथ दूध-पानी की तरह मिल जाते हैं । यद्यपि ये दलिक भौतिक हैं, तथापि जीव के कर्म अर्थात् क्रिया द्वारा आकृष्ट होकर जीव के साथ एकमेक हो जाते हैं। कर्मबन्ध व कर्ममुक्तिः
जैन कर्मवाद में कर्मोपार्जन के दो मुख्य कारण माने गये हैं-योग और कषाय । शरीर, वाणी और मन के सामान्य व्यापार को जैन परिभाषा में 'योग' कहते हैं । जब प्राणी अपने मन, वचन अथवा तन से किसी प्रकार की प्रवृत्ति करता है तब उसके आसपास रहे हुए कर्म योग्य परमाणुओं का आकर्षण होता है । इस प्रक्रिया का नाम प्रास्रव है । कषाय के कारण कर्म परमाणुओं का आत्मा से मिल जाना बंध कहलाता है । कर्मफल का प्रारम्भ ही कर्म का उदय
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org