Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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पुण्य-पाप की अवधारणा ]
[ १५५
४. मोहनीय
५. आयुष्य
६.
नाम
-आत्मा की यथार्थ दृष्टि एवं सम्यग् आचरण (स्व स्वभाव प्रवर्तन) की शक्ति को कुण्ठित करता है । जैसे मदिरा सेवन व्यक्ति को बे भान कर देता है। -आत्मा की अमरत्व शक्ति को कुण्ठित कर योनि एवं आयुष्य का निर्धारण करता है । जैसे कैदी
और जेल का दृष्टान्त । - प्रात्मा की अमूर्तित्व शक्ति को कुण्ठित करता है । यह व्यक्तित्व (शरीर रचना सुन्दरअसुन्दर) का निर्माण करता है । जैसे चित्रकार का दृष्टान्त । -प्रात्मा की अगुरुलघु शक्ति को कुण्ठित करता है। यह प्राणी को ऊँचा-नीचा बनाता है। जाति, कुल, वंश आदि की अपेक्षा से । जैसे कुम्भकार विभिन्न प्रकार के कुम्भ बनाता है। -प्रात्मा की अनन्त शक्ति को कुण्ठित करता है। यह उपलब्धि में बाधक बनता है । जैसे अधिकारी द्वारा भुगतान का आदेश देने पर भी रोकड़िया भुगतान में रोक लगा देता है।
१०३
७.
गोत्र
८.
अंतराय
५
कुल प्रकृतियाँ
१५८
इस प्रकार आठ कर्मों की कुल १५८ अवान्तर प्रकृतियां हैं। इनमें पुण्य एवं पाप की प्रकृतियों का विवरण नीचे दिया जाता है
पुण्य प्रकृतियां-(१) वेदनीय की १ (साता वेदनीय), (२) प्रायुष्य ३ (नरकायु छोड़), (३) नाम ३७ [गति २ (देव, मनुष्य), पंचेन्द्रिय १, शरीर ५, अंगोपांग ३, वज्र ऋषभ संहनन १, सम चतुरस्र संस्थान १, शुभ वर्ण, गंध, रस, स्पर्श ४, प्रानुपूर्वी २ (देव, मनुष्य), अगुरु लघु १, पराघात १, उश्वास १, आताप १, उद्योत १, शुभ विहायोगति १, निर्माण १, तीर्थकर १, त्रसदशक १०] (४) गोत्र १ (ऊँच) । इस प्रकार कुल ४२ पुण्य प्रकृतियाँ (पुण्य भोगने की) मानी गई हैं। किन्तु 'तत्त्वार्थ सूत्र' के अनुसार उक्त प्रकृतियों के अलावा कुछ मोहनीय कर्म की प्रकृतियाँ भी पुण्य प्रकृतियों में ली गई हैं। वे इस प्रकार हैं१-नव तत्त्व से ।
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