Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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कर्म-परिणाम की परम्परा
0 श्री केदारनाथ
कर्म के फल या परिणाम के लिये कर्ता के अगले जन्म तक प्रतीक्षा करने का सचमुच कोई कारण नहीं, क्योंकि कर्म के संकल्प के साथ ही कर्ता के चित्त पर सुख-दुःख के परिणाम शुरू हो जाते हैं । तभी से उसकी तरंगें भी विश्व में फैलने लगती हैं । कर्म हो जाने के बाद उसके भले-बुरे परिणाम भी कर्ता को
और जहाँ-जहाँ वे पहुँचते हैं वहाँ के सब लोगों को प्रत्यक्ष भोगने पड़ते हैं। उन परिणामों से पैदा होने वाले कई तरह के परिणामों की परम्परा दुनिया में जारी रहती है। विश्व का व्यापार किसी तरह अखंड रूप में चलता रहता है । कर्म के संकल्प और भाव विश्व की उसी प्रकार की तरंगों और आन्दोलनों में तुरन्त मिलकर उन तत्त्वों में वृद्धि करते हैं । प्रत्येक मनुष्य या दूसरा कोई प्राणी अपनेअपने संकल्प के अनुसार या चित्त के धर्म के अनुसार उन आन्दोलनों के तत्त्वों को आत्मसात् करके उन्हें उसी प्रकार के संकल्प या कर्म द्वारा पुनः प्रकट करता है। उसमें से भो नई तरंगें उठती हैं और फिर विश्व में फैलने लगती हैं । स्थूल कर्म और उनकी भौतिक तरंगें विश्व के व्यक्त-अव्यक्त को मदद देते हैं। जिस प्रकार क्रिया-प्रतिक्रिया के न्याय से कर्म, संकल्प और भाव का चक्र व्यक्त-अव्यक्त के आधार पर विश्व में सतत जारी ही रहता हैं । व्यक्ति के मरने से यह चक्र बन्द नहीं हो जाता । वह विरासत के आधार पर आगे जारी रहता है । विरासत का अर्थ यहाँ केवल वंश-परम्परा या रक्त का सम्बन्ध न मानकर कर्म और संकल्प की सजातीयता समझना चाहिये । मनुष्य की मृत्यु के बाद उसके चित्त में जो संकल्प तीव्र रूप में बसे होंगे, जो इच्छाएँ, भावनायें और हेतु उत्कृष्ट रूप में रहे होंगे, उनकी तरंगों और आन्दोलनों का मृत्यु के बाद विश्व में अधिक तीव्रता से फैलना या जारी रहना संभव है। शरीर का कण-कण जैसे पंच महाभूतों में मिल जाता है, उसी तरह सारे जीवन में उसने जो सत्व या तत्त्व प्राप्त किया होगा, वह विश्व में रहने वाले सजातीय सत्व या तत्त्व में मिल जाता है ।
हमारे भले-बुरे कर्मों का फल इस जन्म में नहीं तो दूसरे जन्म में भी सुखदुःख रूप में हमीं को भुगतना पड़ता है, लोगों की ऐसी श्रद्धा है । इस कारण समाज में कुछ समय तक नीति के संस्कार टिके और बढ़े भी । श्रद्धा के मूल में लोगों की यह समझ थी कि ईश्वर के घर या कुदरत में न्याय है । कुछ समय तक समाज पर इसका अच्छा असर भी हुआ। परन्तु बाद में यह हालत नहीं रही । अब इस मान्यता में संशोधन का समय आ गया है। अब प्रश्न खड़ा हुआ
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