Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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[ कर्म सिद्धान्त इस तथ्य को भारतीय-दर्शन स्वीकार करते हैं। आत्मा के "आवरणों" को भिन्न नामों द्वारा व्यक्त किया गया है किन्तु मूल अवधारणा में अन्तर नहीं है । आत्मा के आवरण को जैन दर्शन कर्म-पुद्गल, बौद्ध-दर्शन तृष्णा एवं वासना, वेदान्त-दर्शन अविद्या-अज्ञान के कारण माया तथा योग-दर्शन 'प्रकृति' के नाम से अभिहित करते हैं ।
__ आवरणों को हटाकर मुक्त किस प्रकार हुआ जा सकता है ? कर्तावादीसम्प्रदाय परमेश्वर के अनुग्रह, शक्तिपात, दीक्षा तथा उपाय को इसके हेतु मान लेते हैं । जो दर्शन जीव में ही कर्मों को करने की स्वातंत्र्य शक्ति मानकर जीवात्मा के पुरुषार्थ को स्वीकृति प्रदान करते हैं तथा कर्मानुसार फल-प्राप्ति में विश्वास रखते हैं, वे साधना-मार्ग तथा साधनों पर विश्वास रखते हैं। कोई शील, समाधि तथा प्रज्ञा का विधान करता है, कोई श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन का उपदेश देता है। जैन दर्शन सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र्य के सम्मिलित रूप को मोक्ष-मार्ग का कारण मानता है। - इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि जो कर्म करता है, वही उसका फल भोगता है । जो जैसा कर्म करता है उसके अनुसार वैसा ही कर्म-फल भोगता है । इसी कारण सभी जीवों में आत्म शक्ति होते हुए भी वे कर्मों की भिन्नता के कारण जीवन की नानागतियों, योनियों, स्थितियों में भिन्न रूप में परिभ्रमित हैं । यह कर्म का सामाजिक संदर्भ है । सामाजिक स्तर पर 'कर्मवाद' व्यक्ति के पुरुषार्थ को जागृत करता है । यह उसे सही मायने में सामाजिक एवं मानवीय बनने की प्रेरणा प्रदान करता है । उसमें नैतिकता के संस्कारों को उपजाता है। व्यक्ति को यह विश्वास दिलाता है कि अच्छे कर्म का फल अच्छा होता है तथा बुरे कर्म का फल बुरा होता है। रागद्वेष वाला पापकर्मी जीव संसार में उसी प्रकार पीड़ित होता है जैसे विषम मार्ग पर चलता हुआ अन्धा व्यक्ति । प्राणी जैसे कर्म करते हैं, उनका फल उन्हें उन्हीं के कर्मों द्वारा स्वतः मिल जाता है । कर्म के फल भोग के लिए कर्म और उसके करने वाले के अतिरिक्त किसी तीसरी शक्ति की आवश्यकता नहीं है। समान स्थितियों में भी दो व्यक्तियों की भिन्न मानसिक प्रतिक्रियाएँ कर्म-भेद को स्पष्ट करती हैं।
__कर्म वर्गणा के परमाणु लोक में सर्वत्र भरे हैं। हमें कर्म करने ही पड़ेंगे। शरीर है तो क्रिया भी होगी। क्रिया होगी तो कर्म-वर्गणा के परमाणु प्रात्मप्रदेश की ओर आकृष्ट होंगे ही। तो क्या हम क्रिया करना बन्द करदें ? क्या फिर कोई व्यक्ति जीवित रह सकता है ? क्या ऐसी स्थिति में सामाजिक जीवन चल सकता है ? खेती कैसे होगी ? कल कारखाने कैसे चलेंगे? वस्तुओं का उत्पादन कैसे होगा ? क्या कर्म हीन स्थिति में कोई जिन्दा रह सकता है।
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