Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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[ कर्म सिद्धान्त यह सब स्वीकारते हैं कि सुख-दुःख, गरीबी-अमीरी के कारण हमारी समाज व्यवस्था और अर्थ-व्यवस्था में मौजूद हैं। पुण्य-पाप, ऊँच-नीच के विचार को सामाजिक न्याय में आड़े नहीं आना चाहिए । परन्तु वह आता है । जैन कर्मवाद, इस सम्बन्ध में यथास्थिति वाद को स्वीकार करके चलता है। सबसे बड़ा आक्षेप यह है कि कर्मवाद दृश्य समस्याओं के लिए अदृश्य कारणों को जिम्मेदार मानता है। दूसरा आक्षेप यह है कि कर्म प्रक्रिया इतनी जटिल है कि वह सामान्य बुद्धि के परे हैं । कर्मवाद का प्रयोग व्यक्ति स्तर पर किया गया, वह भी मोक्ष की प्राप्ति के लिए । संसार या समाज व्यवस्था को बदलने की दिशा में उक्त वाद का कभी प्रयोग नहीं किया गया। यह भूलना भयावह होगा कि कर्मवाद जीवन की स्वीकृति है, उससे पलायन नहीं, वीतरागता का मार्ग रागात्मकता में से गुजरता है, मोक्ष, रागवृक्ष का फल है, फल पाने के लिए वृक्ष की पूरी संरचना की उपेक्षा का वही परिणाम होगा जो हम देख रहे हैं।
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। प्रत्येक कर्म ही कर्ता का चित्र है । अतः कर्ता की सुन्दरता तथा
असुन्दरता का परिचय उसके किये हुए कर्म से ही व्यक्त होता है , सुन्दर कर्ता के बिना सुन्दर कार्य सम्भव नहीं है। कर्ता वही सुन्दर हो सकता है कि जिसका कर्म 'पर' के लिए हितकर सिद्ध हो तथा किसी के लिए अहितकर न हो। अतः कार्यारम्भ से पूर्व यह विकल्प-रहित निर्णय कर लेना चाहिये कि उस कार्य का मानव-जीवन में स्थान ही नहीं है जो किसी के लिए भी अहितकर है। अहितकर कार्य का अर्थ है कि जो किसी के विकास में बाधक हो।
0 प्राप्त परिस्थिति के अनुसार कर्तव्य-पालन का दायित्व तब तक रहता ही है जब तक कर्ता के जीवन से अशुद्ध तथा अनावश्यक संकल्प नष्ट न हो जाय, आवश्यक तथा शुद्ध संकल्प परे होकर मिट न जाय, सहज भाव से निर्विकल्पता न आ जावे, अपने आप आयी हुई निर्विकल्पता से असंगता न हो जाय तथा असंगतापूर्वक प्राप्त स्वाधीनता को समर्पित कर जीवन प्रेम से परिपूर्ण न हो जाय । कर्तव्य-पालन से अपने को बचाना भूल है । अतः प्राप्त परिस्थिति के अनुरूप मानव को कर्तव्यनिष्ठ होना अनिवार्य है।
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