Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 318
________________ कर्म और आधुनिक विज्ञान ] [ ३१३ ठोस, तरल और गैस बनते हैं । शरीर के भीतर अनेकानेक प्रकार के ये पुद्गल पिण्ड या रासायनिक संगठन हैं। इनमें सर्वदा कुछ न कुछ परिवर्तन होता रहता है । सारा वायुमंडल पुद्गल परमाणुओं से भरा हुआ है । विश्व की हरएक वस्तु, हरएक अणु-परमाणु सर्वदा कंपन-प्रकंपन युक्त हैं जिससे हरएक वस्तु से पुद्गलों का अजस्र प्रवाह होता रहता है। हम भोजन, पान करते हैं जिनसे भीतर रासायनिक प्रक्रियाएँ होती रहती हैं और शरीर के भीतर हर समय नए पुद्गल पिण्ड बनते रहते हैं और पुरानों में कुछ परिवर्तन होता रहता है। इन्हीं पुद्गल पिण्डों के बीज रूप पुद्गल परमाणुओं से कार्मण शरीर का निर्माण होने से उसमें भी परिवर्तन होते रहते हैं । बाहर से अनंतानंत पुद्गल परमाणु विभिन्न संगठनों में आते रहते हैं और भीतर से निकलते रहते हैं । और आपसी क्रिया-प्रक्रिया द्वारा प्रांतरिक पुद्गलपिण्डों में अथवा रासायनिक संगठनों में परिवर्तन होते रहते हैं। कुछ क्षणिक, कुछ अधिक समय तक रहने वाले कुछ काफी स्थायी प्रकार के नए-पुराने संगठन बनते-बिगड़ते रहते हैं। जो पुद्गल परमारणु शरीर के अंतर्गत पुद्गल पिण्डों से मिलकर - संघबद्ध होकर या रासायनिक क्रिया द्वारा स्थायी परिवर्तन कर देते हैं उन्हें जैन साहित्य में “आस्रव' नाम दिया गया है। रासायनिक क्रिया द्वारा संघबद्धता हो जाने पर उस क्रिया को "बंध" कहते हैं। ये परिवर्तन यथानुरूप "कार्मण शरीर" में भी होते रहते हैं। मानव जो कुछ भी करता, कहता या विचारता है वे सभी किसी न किसी पुद्गल पिण्ड द्वारा ही परिचालित, प्रेरित या प्रभावित होते हैं। यह “कर्म प्रकृति" कही जाती है। इनका विशद पर संक्षिप्त विवरण दो पुस्तकों से प्राप्त हो सकता है । ये हैं-हिन्दी में-"जीवन रहस्य एवं कर्म रहस्य" तथा अंग्रेजी में "मिस्ट्रीज प्रॉफ लाइफ एण्ड इटर्नल ब्लिस १ इन्हें देखें । कर्म सिद्धान्त जैन वाङमय में बड़े ही विशाल रूप में वर्णित है यदि पुद्गल परमाणुओं का आना-जाना और प्रांतरिक पुद्गल पिंडों से संघबद्ध होकर "बंधादि" करना समझ में आ जाय तो फिर परम वैज्ञानिक जैन कर्म सिद्धान्त समझने में कोई कठिनाई नहीं हो और तब ज्ञान श्रुतज्ञान न रहकर वैज्ञानिक सम्यक् ज्ञान हो जाय । यह "बंध" ही भाग्य है। जो आस्रवित पुद्गल बंध बनाते हैं उन्हें कर्म पुद्गल या संक्षेप में “कर्म" कहते हैं और ये कर्म पुद्गल कार्मण शरीर से रासायनिक क्रिया द्वारा प्रतिबन्धित हो जाते हैं । यह बंधन-प्रतिबंधन सर्वदा चलता रहता है। "कर्मों" में भी परिवर्तन होता रहता है। हमारे यहाँ आठ प्रकार के “कर्म-बंध' कहे गए हैं । जो आत्मा के आठ गुणों को आच्छादित या मर्यादित कर देते हैं । कर्म १. पुस्तकें मिलने का पता :-तीर्थंकर महावीर स्मृति केन्द्र समिति, उत्तरप्रदेश, पारस सदन, आर्य नगर, लखनऊ, पिन : २२६ ००१ जीवन रहस्य एवं कर्म रहस्य-मल्य रु० ३.५० मिस्ट्रीज ऑफ लाइफ एण्ड इटर्नल ब्लिस-मूल्य रु० ७.५० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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