Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 321
________________ ३१६ ] [ कर्म सिद्धान्त जगत्, कर्म की ही गति का फल है । देवता लोग भी कर्म के बन्धनों से परे नहीं हैं। अवतार लेने पर भगवान भी कर्म के गतिचक्र में घूमने लगते हैं। कर्म की गति बड़ी विचित्र है। इसके आदि-अन्त को जानना सरल नहीं है। सच ही कहा गया है-'गहना कर्मणो गति'। विश्व में व्याप्त विषमता का एकमात्र कारण प्राणियों द्वारा किये गये अपने कर्म हैं । 'कर्मजम् लोकवैचित्र्य', अर्थात् विश्व की यह विचित्रता कर्मजन्य है, कर्म के कारण है। __"करम प्रधान विश्व करि राखा, जो जस करहि सो तसि फल चाखा" ' -यही कर्म सिद्धान्त है, जिसे वेदान्त, गीता, जैन, बौद्ध, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा, सांख्य, योग, अद्वैत, काश्मीरीय शैव, वैष्णव, भेदाभेद, विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत, द्वत, शुद्धात-सभी दर्शन स्वीकार करते हैं। विभिन्न दार्शनिकों के मन्तव्यों से यह स्पष्ट है कि कर्म क्रिया या वृत्ति या प्रवृत्ति या द्रव्यकर्म है, जिसके मूल में राग और द्वेष रहते हैं- 'रागो य दोसो विय कम्मबीय' । हमारा प्रत्येक अच्छा या बुरा कार्य संस्कार, धर्म-अधर्म, कर्माशय, अनुशय या भावकर्म छोड़ जाता है। संस्कार से प्रवृत्ति और प्रवृत्ति से संस्कार की परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है। इसी का नाम संसार है, जिसके चक्र में पड़े हुए प्राणी कर्म, माया, अज्ञान, अविद्या, प्रकृति, वासना या मिथ्यात्व से संलिप्त हैं, जिनके कारण वे संसार के वास्तविक स्वरूप को समझने में असमर्थ हैं, अतः प्राणी के प्रत्येक कार्य राग द्वष के अभिनिवेश हैं। इसलिए प्राणियों का प्रत्येक कार्य प्रात्मा पर आवरण का ही कारण होता है। परन्तु सत्त्व-रजस-तमो-रूपा त्रिगुणात्मिका अविद्या त्रिगुणातीत आत्मा से पृथक है। जीव और कर्म के सम्बन्ध का प्रवाह अनादि है। कर्म-प्रवाह के अनादित्व को और मुक्त जीव के संसार में न लौटने को सभी प्रतिष्ठित दर्शन मानते हैं। आत्मा ही कर्म का कर्ता और उसके फल का भोक्ता है—“य कर्ता कर्म भेदानाम् भोक्ता फलस्य च" यद्यपि जीव और पौद्गलिक कर्म दोनों एक दूसरे का निमित्त पाकर परिणमन करते हैं तथापि आत्मा अपने भावों का ही कर्ता है, पुद्गल कर्मकृत समस्त भावों का कर्ता नहीं है। गीता में स्पष्ट कहा है-"नादत्ते कस्यचित्त पापं न चैव सुकृतं विभु", अर्थात् परमेश्वर न तो किसी के पाप को लेता है और न पुण्य को, यानी प्राणीमात्र को अपने कर्मानुसार सुख-दुःख भोगने पड़ते हैं। कर्म अपना फल स्वयं देते हैं । 'कर्मणा बध्यते जन्तुः' (महाभारत, शान्तिपर्व) अर्थात् प्राणी कर्म से बँधता है और कर्म की परम्परा अनादि है। ऐसी परिस्थिति में 'बुद्धि कर्मानुसारिणी' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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