Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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कर्म का सामाजिक संदर्भ
- डॉ. महावीर सरन जैन
आध्यात्मिक दृष्टि से कर्म सिद्धान्त पर बड़ी गहराई से विचार हुआ है। उसके सामाजिक सन्दर्भो की प्रासंगिकता पर भी विचार करना अपेक्षित है।
आध्यात्मिक दृष्टि से व्यक्ति माया के कारण अपना प्रकृत स्वभाव भूल जाता है । राग-द्वेष से प्रमत्त जीव इन्द्रियों के वशीभूत होकर मन, वचन, काय से कर्मों का संचय करता है। जैसे दूध और पानी परस्पर मिल जाते हैं, वैसे ही कर्म-पुद्गल के परमाणु आत्म-प्रदेशों के साथ संश्लिष्ट हो जाते हैं। जिस प्रकार लोह-पिंड को अग्नि में डाल देने पर उसके कण-कण में अग्नि परिव्याप्त हो जाती है, उसी प्रकार आत्मा के असंख्यात प्रदेशों पर अनन्त-अनन्त कर्म वर्गणा के पुद्गल संश्लिष्ट हो जाते हैं।
जीव अनादि काल से संसारी है । दैहिक स्थितियों से जकड़ी हुई आत्मा के क्रियाकलापों में शरीर (पुद्गल) सहायक एवं बाधक होता है। आत्मा का गुण चैतन्य और पुद्गल का गुण अचैतन्य है। आत्मा एवं पुद्गल भिन्न धर्मी हैं फिर इनका अनादि प्रवाही सम्बन्ध है। आत्मा एवं शरीर के संयोग से "वैभाविक गुण" उत्पन्न होते हैं। ये हैं-पौद्गलिक मन, श्वास-प्रश्वास, आहार, भाषा । ये गुण न तो आत्मा के हैं और न शरीर के हैं। दोनों के संयोग से ही ये उत्पन्न होते हैं । मनुष्य की मृत्यु के समय श्वास-प्रश्वास, आहार एवं भाषा के गुण तो समाप्त हो जाते हैं किन्तु पुद्गल-कर्म के आत्म-प्रदेशों के साथ संश्लिष्ट हो जाने के कारण एक "पौद्गलिक शरीर" उसके साथ निर्मित हो जाता है जो देहान्तर करते समय उसके साथ रहता है।
स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द रूप मूर्त-पुद्गलों का निमित्त पाकर अर्थात् शरीर की इन्द्रियों द्वारा विषयों का ग्रहण करने पर आत्मा राग-द्वेष एवं मोह रूप में परिणमन करती है। इसी से कर्मों का बन्धन होता है। कर्मों का उत्पादक मोह तथा उसके बीज राग एवं द्वेष हैं। कर्म की उपाधि से आत्मा का शुद्ध स्वभाव आच्छादित हो जाता है । कर्मों के बन्धन से आत्मा की विरूप अवस्था हो जाती है । बन्धनों का अभाव अथवा आवरणों का हटना ही मुक्ति है। मुक्ति की दशा में आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप अवस्था में स्थित हो जाती है।
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