Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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[ कर्म सिद्धान्त
जा सकता है कि वह "स्वयं अपने ही पैरों में प्राप कुल्हाड़ी मारने को तैयार हुआ है" (तु. गा. ४४४८) भगवद्गीता में इसी तत्त्व का उल्लेख यों किया गया है | "न हिनस्त्यात्मनऽऽत्मानाम्" जो स्वयं अपना घात आप ही नहीं करता, उसे उत्तम गति मिलती है ।' यद्यपि मनुष्य कर्मसृष्टि के अभैद्य दिखाई देने वाले नियमों में जकड़ कर बन्धा हुआ है तथापि स्वभावतः उसे ऐसा मालूम होता है कि मैं इस परिस्थिति में भी अमुक काम को स्वतन्त्र रीति से कर सकूंगा । अनुभव के इस तत्त्व की उत्पत्ति ऊपर कहे अनुसार ब्रह्मसृष्टि को जड़ सृष्टि से भिन्न माने बिना किसी भी अन्य रीति से नहीं बतलाई जा सकती । इसलिए जो अध्यात्मशास्त्र को नहीं मानते उन्हें इस विषय में या तो मनुष्य के नित्य दासत्व को मानना चाहिये या प्रवृत्ति स्वातन्त्र्य के प्रश्न को अगम्य समझकर यों ही छोड़ देना चाहिये । उनके लिए कोई दूसरा मार्ग नहीं है | अद्वैत वेदान्त का यह सिद्धान्त है कि जीवात्मा और परमात्मा मूल में एक रूप हैं और इसी सिद्धान्त के अनुसार प्रवृत्ति स्वातन्त्र्य या इच्छास्वातन्त्र्य की उक्त उत्पत्ति बतलाई गई है | परन्तु जिन्हें यह अद्वैत मत मान्य नहीं है अथवा जो भक्ति के लिये द्वैत को स्वीकार किया करते हैं उनका कथन है कि जीवात्मा की यह सामर्थ्य स्वयं उसकी नहीं है, बल्कि यह उसे परमेश्वर से प्राप्त होती है । तथापि 'न ऋतु श्रान्तस्य सख्याय देवाः । २ थकने तक प्रयत्न करने वाले मनुष्य के अतिरिक्त अन्यों की देवता मदद नहीं करते - ऋग्वेद के इस तत्वानुसार यह कहा गया है, कि जीवात्मा को यह सामर्थ्य प्राप्त करा देने के लिए पहले स्वयं ही प्रयत्न करना चाहिए - अर्थात् ग्रात्म प्रयत्न का या पर्याय से आत्म स्वातन्त्र्य का तत्त्व फिर भी स्थिर बना ही रहता है। अधिक क्या कहें ? बौद्धधर्मी लोग आत्मा का या परब्रह्म का अस्तित्व नहीं मानते और यद्यपि उनको ब्रह्मज्ञान तथा आत्मज्ञान मान्य नहीं है तथापि उनके धर्मग्रन्थों में भी यही उपदेश किया गया है कि "अत्तना (आत्मना ) चोदयतान ? - श्रपने आप को स्वयं अपने ही प्रयत्न से राह पर लगाना चाहिए । इस उपदेश का समर्थन करने के लिए कहा गया है कि :
अत्ता (आत्मा) हि प्रत्तनो नाथो अत्ता हि अत्तना गति । तस्मा संजमयत्ताणं अस्सं (अश्वं ) भदं व वाणिजो ||
"हम ही खुद अपने स्वामी या मालिक हैं और अपने आत्मा के सिवा हमें तारने वाला दूसरा कोई नहीं है, इसलिए जिस प्रकार कोई व्यापारी अपने उत्तम घोड़े का संयमन करता है उसी प्रकार हमें अपना संयमन आप ही भलीभांति करना चाहिए ।"
१ -- गीता १३.२८
२ – ऋग्वेद ४, ३३.११
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