Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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पुण्य-पाप की अवधारणा ]
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क्षुद्र होगा और दिए चनों से मछलियाँ मारेगा । अतः वह इस पाप का भागीदार नहीं हो सकता । दाता के भावों में और क्रिया में इस पाप की आंशिक कल्पना तक भी नहीं थी । अतः वह सेठ सर्वथा निर्दोष है । जब माचिस विक्रेता से कोई माचिस खरीद कर घर जलावे तो वह विक्रेता उसके लिए अपराधी नहीं माना जाता, तब शुभ भाव से विवेकपूर्वक दिए हुए अनुकम्पा दान के दुरुपयोग का पाप दानदाता को किस प्रकार लग सकता है ?
एक प्रबुद्ध वर्ग यह भी कथन करता है कि जिस तरह पाप से भौतिक हानि होती है वैसे ही पुण्य से भौतिक लाभ ही होता है, आत्मिक लाभ तो कुछ नहीं होता फिर पुण्य कर्म क्यों किए जावें ? इसका उत्तर यह है कि वस्तुतः goa से आत्मिक लाभ कुछ नहीं होता हो, ऐसा एकान्त नियम नहीं है । वस्तुतः पुण्य से जहाँ भौतिक लाभ होते हैं वहाँ प्रात्मिक लाभ भी । जैसे मनुष्य जन्म, प्रार्य क्षेत्र, उत्तम कुल, धर्म श्रवरण, धर्म प्राप्ति आदि सब पुण्य से ही होते हैं । बिना मनुष्य भव के जीव धर्म साधना ही नहीं कर सकता । एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रियादि दशाओं में तो जीव धर्म का स्वरूप ही नहीं समझ सकता । जीव को पुण्य के निमित्त से उत्तम साधन मिलने पर ही वह धर्म साधना में गति करता है । माता मरुदेवी, संयती राजर्षि, परदेशी राजा, भृगुपुत्र आदि मिथ्यात्वी थे । उन्हें पुण्य के फलस्वरूप ही धर्म के उत्तम निमित्त मिले और वे धर्मात्मा बने । अनादि मिथ्यादृष्टि को जब प्रथम बार सम्यक्त्व लाभ होता है तब उसे उपशम भाव के साथ पुण्योदय की अनुकूलता रहना आवश्यक होती है, इसी निमित्त से उसके दर्शन मोहनीय का पर्दा हटता है । पुण्य क्रिया के साथ यदि वासना का विष न हो, तो उससे आत्मिक लाभ होता है और पुण्यानुबंधी पुण्य तो नियमत: आत्मिक लाभ पूर्वक होता है ।
अन्त में सभी आत्मार्थियों से निवेदन है कि पुण्य-पाप का यथार्थ स्वरूप जैसा सर्वज्ञ वीतराग भगवंतों ने प्ररूपित किया है, उस पर कर्म सिद्धान्त के परिप्रेक्ष्य में जानकारी के अनुसार यत्किंचित् प्रकाश डालने का इस लेख में प्रयास किया है । इसमें कुछ अन्यथा लिखने में आया हो तो कृपा कर सूचित करावें जिससे भूल सुधार हो सके ।
कर्म सिद्धान्त के अनुसार पुण्य-पाप की अवधारणाओं को उनकी हेय, ज्ञेय एवं उपादेयता की वस्तुस्थितियों को ध्यान में लाकर उनसे हम अपने जीवन और समाज को लाभान्वित करें । अशुभ से शुभ और शुभ से शुद्ध की ओर अग्रसर होवें, बस यही हार्दिक सद्भावना है ।
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