Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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मीमांसा-दर्शन में कर्म का स्त
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स्वयं में लक्ष्य है जो कि स्वयं में शुभ और अशुभ नहीं है। स्पष्टता के लिये एक उदाहरण लें। मान लीजिये कि एक कानून या आदेश है जो कहता है कि 'किसी की हत्या नहीं करनी चाहिये' या सफाई रखो, या सफाई रखना चाहिये
आदि आदि । लेकिन अगर कानन की अवज्ञा करने पर दण्ड का विधान न हो तो कोई भी व्यक्ति उस कानन या राज्यादेश का पालन नहीं करेगा। जिस प्रकार सभी नागरिक मामलों में राज्यादेश सर्वशक्तिमान है उसी प्रकार धार्मिक कृत्यों में वैदिक आदेश' हमें बाँधता है क्योंकि इस आदेश को मानने पर भावी जीवन में पुरस्कार मिलेगा। इस दृष्टि से चोदना पद का अर्थ हुआ वैदिक आदेश (या ईश्वरीय आदेश) जो किसी व्यक्ति को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है अथवा किसी विशिष्ट प्रकार का कर्म करने से रोकता है। अतः चोदना वैदिक आज्ञा या निर्देश है जो वैदिक ग्रन्थों में निहित है।
धर्म की उत्पत्ति कर्म, जो कि जीवन का नियम है, के द्वारा होती है । अतः यहां कर्म के स्वरूप, कर्म के भेद, कर्म का कारण, उद्देश्य एवं उपकरणों आदि पर चर्चा करना अत्यन्त आवश्यक है। मीमांसा-दर्शन में कर्म का तात्पर्य वैदिक यज्ञ सम्बन्धी कर्मकाण्ड के अनुष्ठान के रूप में समझा जाता है। वैसे कर्म हमारी प्रकृति का अविभाज्य अंग है। यह नित्य एवं सार्वजनीन है। कर्म के प्रत्यय में भौतिक वस्तुएँ तथा स्थान या दिक् अनिवार्य रूप से पूर्वकल्पित होता है। कर्म को उद्देश्य के आधार पर भी विशेषित कर सकते हैं तथा यह अंशों से युक्त होता है । कर्म में दैहिक अंगों की गति अनिवार्य है। मानसिक कर्मों १. वेदों के रचनाकार के बारे में प्रमुख रूप से दो मत हैं—(१) वेद ईश्वर प्रणीत हैं
और द्वितीय अपौरुषेय । हमें वेदों कों परम्परा से चले आ रहे आदेशों के रूप में समझना चाहिये । इस दृष्टि से इनके रचनाकार के बारे में प्रश्न उठाना निरर्थक है । उदाहरण के रूप में हम किसी पारिवारिक परम्परा को ले सकते हैं । यह परम्परा किसने डाली ? यह प्रश्न निरर्थक है। प्रश्न यह अधिक समीचीन है कि यह परम्परा कितनी समयानुकूल है। इस परम्परा के मूलभूत आधार क्या हैं ? वेदों में तीन प्रकार के कर्मों-नित्य-नैमित्तिक, निषिद्ध एवं काम्य कर्मों की बात की गई है। जिनका आधार है कि व्यक्ति के विकास के साथ सामाजिक समायोजन । वेदों के आदेशों को आकार के रूप में लेना चाहिये और उसमें विषयवस्तु समयानुकूल भर सकते हैं । लेकिन ध्यान यह रहे कि यह व्यक्ति के और समाज के विकास में सहायक
होनी चाहिये। २. कर्म के बारे में चर्चा मीमांसा-सूत्र के लगभग सभी अध्यायों में हुई हैं। ३. यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि मीमांसा एक प्रमुख कर्म में कर्म-शृंखलाओं को
स्वीकार करता है। अतः प्रश्न होता है कि मौलिक या प्राथमिक कर्म शृंखला क्या है ? इस प्रकार की चर्चा अमरीकी दार्शनिक आर्थर सी. डाण्टो ने की है । इस संदर्भ में मेरा लेख-"प्रार्थर सी, डाण्टो के 'मूल-क्रिया' के प्रत्यय का विश्लेषण"; दार्शनिक त्रैमासिक, वर्ष २४/अप्रेल १६७८, अंक २, द्रष्टव्य है ।
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