Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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पाश्चात्य दर्शन में क्रिया-सिद्धान्त
0 डॉ० के० एल० शर्मा
भारतीय दर्शन में कर्म के प्रत्यय का प्रयोग जिस अर्थ में मिलता है उस अर्थ में पाश्चात्य-दर्शन में नहीं मिलता। ऐसा इसलिये है कि भारतीय दर्शन में चार्वाकों को छोड़कर सभी दार्शनिक पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं । अतः पुनर्जन्म की व्याख्या के रूप में 'कर्म' के प्रत्यय को भारतीय दर्शन में समझा गया है जबकि पाश्चात्य-दर्शन में ऐसा नहीं है।
क्रिया-दर्शन पाश्चात्य दर्शन शास्त्र की एक नवीन शाखा है। तत्त्वमीमांसकों के अतिरिक्त मनोवैज्ञानिक, समाजशास्त्री एवं विधिशास्त्री भी क्रिया कर्म के प्रत्यय की व्याख्या में रुचि रखते हैं। तत्त्वमीमांसकों की रुचि मानव स्वतंत्रता एवं उत्तरदायित्व प्रादि कर्म से सम्बन्धित समस्याओं तक ही सीमित थी । समकालीन दार्शनिकों की रुचि इसमें है कि कर्म की व्याख्या कारण-कार्य के रूप में की जा सकती है या नहीं? कुछ दार्शनिक मानव-क्रिया की व्याख्या कारण-कार्य के रूप में करते हैं तो दूसरी ओर अन्य दार्शनिक मानव-क्रिया/कर्म को अन्य प्रकार की घटनाओं से बचाये रखने के लिये क्रिया अथवा कर्म की व्याख्या अभिप्राय एवं हेतु आदि प्रत्ययों द्वारा करते हैं।
इस संक्षिप्त लेख में हम मानव क्रिया/कर्म (Human action) के स्वरूप एवं उसकी कुछ समस्याओं तथा व्याख्या करने वाले कुछ सिद्धान्तों का अति संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करेंगे।
प्रत्येक व्यक्ति क्रिया करता है चाहे वह दैहिक हो (जैसा कि मांसपेशीय गति, हाथ उठाना, कोई चीज खरीदना, पुल बनाना, दूसरे व्यक्ति की प्रशंसा करना या उसकी हँसी उड़ाना आदि) या मानसिक (उदाहरणतः गणितीय समस्या का समाधान करना, किसी रहस्य को छुपाये रखना आदि) । लेकिन यह तथ्य कि "मनुष्य क्रिया करते हैं" इस दावे की ओर इंगित नहीं करता कि *यद्यपि पाश्चात्य दर्शन में भारतीय दर्शनों की भाँति कर्म-सिद्धान्त का विवेचन नहीं मिलता, पर वहाँ क्रिया-सिद्धान्त के रूप में क्रिया पर व्यापक चिन्तन किया गया है । चूँ कि 'कर्म' के मूल में क्रिया अन्तर्निहित है अतः द्रव्य कर्म और भावकर्म के स्वरूप को समझने में पाश्चात्य क्रिया-सिद्धान्त सहायक हो सकता है। इसी दृष्टि से यह निबन्ध यहाँ दिया जा रहा है। -सम्पादक
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