Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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[ कर्म सिद्धान्त
जैसे कि विचार करना, कल्पना करना, ज्ञान प्राप्त करना आदि को भी समग्र एवं खण्डों के रूप में समझा जा सकता है ।
वेद प्रतिपाद्य कर्म तीन प्रकार के हैं- ( १ ) काम्य कर्म, (२) निषिद्ध कर्म तथा (३) नित्य नैमित्तिक कर्म । जो कर्म स्वर्ग आदि सुख को देने वाले # पदार्थों के साधक हों उन्हें काम्य कर्म कहा जाता है । स्वर्ग की कामना करने वाले व्यक्ति द्वारा ज्योतिष्टोमेन यज्ञ करने को काम्य कर्म के उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है। श्रुति वाक्यों में कामना विशेष की सिद्धि के लिये यागादि कर्म का विधान है अत: इन्हें 'काम्य कर्म' कहा गया है । जिन कर्मों को करने से अनिष्ट हो जैसे कि मृत्योपरान्त नरक की प्राप्ति आदि उन्हें निषिद्ध कर्म कहा गया है । उदाहरण के रूप में मांस का भक्षण, ब्राह्मण की हत्या, आदि निषिद्ध कर्म कहे गये हैं । नित्य नैमित्तिक कर्म वे हैं जिन्हें करने पर कोई पुरस्कार या लाभ तो नहीं मिलता मगर न करने पर दोष लगता है । उदाहरण के रूप में संध्योपासना करना, कर्म परम्परा के पालन हेतु स्राद्ध करना आदि को ले सकते हैं ।
वेद प्रतिपाद्य इन तीनों प्रकार के कर्मों को तीन प्रकार के कर्त्तव्यों के रूप में समझ सकते हैं : क्योंकि इनमें 'चाहिये' का भाव छिपा हुआ है । कुछ कर्मों को नहीं करना चाहिये ( निषिद्ध कर्म ), कुछ कर्मों को अनिवार्य रूप से करना चाहिये ( नित्य नैमित्तिक कर्म ) तथा स्वर्गादि सुख की प्राप्ति के लिये धार्मिक कर्मों का अनुष्ठान करना चाहिये ( काम्य कर्म ) । प्रथम दो प्रकार के कर्त्तव्य सामाजिक एवं व्यक्तिगत प्रकार के हैं और तृतीय प्रकार का कर्त्तव्य पूर्णरूपेण व्यक्तिगत है । विधि की दृष्टि से अर्थात् याज्ञादि कर्मों के निष्पादन में अन्य व्यक्तियों का संदर्भ आवश्यक हो सकता है लेकिन फल की दृष्टि से यह कर्त्तव्य पूर्णरूपेण व्यक्तिगत है ।
इन कर्मों के करने पर मिलने वाले फल के बारे में जिज्ञासा होना स्वाभाविक है । उदाहरण के रूप में 'यजेत् स्वर्गकाम:' आदि आदेश वाक्यों के आधार पर कर्म करने पर यज्ञ (कारण) और स्वर्ग ( उद्देश्य या फल) के बीच कोई साक्षात् सम्बन्ध दिखाई नहीं देता और कहा जा रहा है कि फल की निष्पत्ति तत्काल न होकर बाद में होती है, तब प्रश्न यह है कि फल काल में कर्म की सत्ता के प्रभाव में फलोत्पादम किस प्रकार होता है ?
मीमांसकों ने इस समस्या के समाधान हेतु 'अपूर्व' के प्रत्यय को स्वीकार किया है । इन विचारकों के अनुसार अपूर्व क्षणिक कर्म का कालान्तर में भावी
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