Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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जैन, बौद्ध और गीता के दर्शन में कर्म का स्वरूप ]
[ १६६
बौद्ध
गीता
कर्म पाश्चात्य आचार जैन
दर्शन १. शुद्ध अतिनैतिक कर्म इर्यापथिक कर्म २. शुभ नैतिक कर्म पुण्य कर्म
अव्यक्त कर्म अकर्म कुशल (शुक्ल) कर्म (कुशल कर्म
कर्म) अकुशल (कृष्ण) विकर्म
कर्म
३. अशुभ अनैतिक कर्म
पाप कर्म
आध्यात्मिक या नैतिक पूर्णता के लिए हमें क्रमश: अशुभ कर्मों से शुभ कर्मों की ओर, शुभ कर्मों से शुद्ध कर्मों की ओर बढ़ना होगा । आगे हम इसी क्रम से उन पर थोड़ी अधिक गहराई से विवेचन करेंगे। अशुभ या पाप कर्म :
जैन आचार्यों ने पाप की यह परिभाषा दी है कि वैयक्तिक सन्दर्भ में जो आत्मा को बंधन में डाले, जिसके कारण आत्मा का पतन हो, जो आत्मा के आनन्द का शोषण करे और आत्म शक्तियों का क्षय करे वह पाप है।' सामाजिक सन्दर्भ में जो परपीड़ा या दूसरों के दुःख का कारण हो वह पाप है (पापाय परपीड़न) वस्तुतः जिस विचार एवं आचार से अपना और पर का अहित हो और जिसका फल अनिष्ट प्राप्ति हो वह पाप है। नैतिक जीवन की दृष्टि से वे सभी कर्म जो स्वार्थ, घृणा या अज्ञान के कारण दूसरे का अहित करने की दृष्टि से किए जाते हैं पाप कर्म हैं । मात्र इतना ही नहीं सभी प्रकार का दुर्विचार और दुर्भावनाएँ भी पाप कर्म हैं। पाप या अकुशल कर्मों का वर्गीकरण :
जैन दार्शनिकों के अनुसार पाप कर्म १८ प्रकार के हैं :-१. प्राणातिपातहिंसा, २. मृषावाद-असत्य भाषण, ३. अदत्तादान-चौर्य कर्म, ४. मैथुन-काम विकार या लैंगिक प्रवृत्ति, ५. परिग्रह-ममत्व, मूर्छा, तृष्णा या संचय वृत्ति, ६. क्रोध-गुस्सा, ७. मान-अहंकार, ८. माया-कपट, छल, षडयंत्र और कूटनीति, ९. लोभ-संचय या संग्रह की वृत्ति, १०. राग-आसक्ति, ११. द्वेष-घृणा, तिरस्कार, ईर्ष्या आदि, १२. क्लेश-संघर्ष, कलह, लड़ाई, झगड़ा आदि, १३. अभ्याख्यान-दोषारोपण, १४. पिशुनता-चुगली, १५. परपरिवाद-परनिंदा, १६. रति-अरति-हर्ष और शोक, १७. माया मृषा-कपट सहित असत्य भाषण, १८. मिथ्यादर्शनशल्य-अयथार्थ श्रद्धा या जीवन दृष्टि । १-अभि० रा० खण्ड ५, पृष्ठ ८७६ । २-बोल संग्रह, भाग ३, पृष्ठ १८२ ।
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