Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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जैन, बौद्ध और गीता के दर्शन में कर्म का स्वरूप ]
पाप के कारण :
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जैन विचारकों के अनुसार पापकर्म की उत्पत्ति के स्थान तीन हैं। . १ राग या स्वार्थ, २. द्वेष या घृणा और ३. मोह या अज्ञान । प्राणी राग, द्वेष और मोह से ही पाप कर्म करता है । बुद्ध के अनुसार भी पाप कर्म की उत्पत्ति के स्थान तीन हैं - १. लोभ (राग), २. द्वेष और ३. मोह । गीता के अनुसार काम (राग) और क्रोध ही पाप के कारण हैं ।
पुण्य (कुशल कर्म ) :
पुण्य वह है जिसके कारण सामाजिक एवं भौतिक स्तर पर समत्व की स्थापना होती है । मन, शरीर और बाह्य परिवेश के मध्य सन्तुलन बनाना यह पुण्य का कार्य है । पुण्य क्या है इसकी व्याख्या में तत्वार्थ सूत्रकार कहते हैंशुभात्रय पुण्य है । लेकिन जैसा कि हमने देखा पुण्य मात्र प्रास्रव नहीं है वरन् वह बन्ध और विपाक भी है । दूसरे वह मात्र बन्धन या हेय ही नहीं है वरन् उपादेय भी है । अत: अनेक आचार्यों ने उसकी व्याख्या दूसरे प्रकार से की है । आचार्य हेमचन्द्र पुण्य की व्याख्या इस प्रकार करते हैं - पुण्य (अशुभ) कर्मों का लाघव है और शुभ कर्मों का उदय है । इस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र की दृष्टि में पुण्य अशुभ (पाप) कर्मों की अल्पता और शुभ कर्मों के उदय के फलस्वरूप प्राप्त प्रशस्त अवस्था का द्योतक है । पुण्य के निर्वारण की उपलब्धि में सहायक स्वरूप की व्याख्या प्राचार्य अभयदेव की स्थानांग सूत्र की टीका में मिलती है । आचार्य अभयदेव कहते हैं पुण्य वह है जो आत्मा को पवित्र करता है अथवा पवित्रता की ओर ले जाता है । प्राचार्य की दृष्टि में पुण्य प्राध्यात्मिक साधना में सहायक तत्त्व है। मुनि सुशीलकुमार 'जैन धर्म' नामक पुस्तक में लिखते हैंपुण्य मोक्षार्थियों की नौका के लिये अनुकूल वायु है जो नौका को भवसागर से शीघ्र पार कर देती है । जैन कवि बनारसीदासजी कहते हैं जिससे भावों की विशुद्धि हो, जिससे आत्मा ऊर्ध्वमुखी होता है अर्थात् आध्यात्मिक विकास की ओर बढ़ता है और जिससे इस संसार में भौतिक समृद्धि और सुख मिलता है ही पुण्य है ।
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जैन तत्त्व ज्ञान के अनुसार पुण्य कर्म के अनुसार पुण्य कर्म वे शुभ पुद्गलः परमाणु हैं जो शुभ वृत्तियों एवं त्रियानों के कारण आत्मा की ओर आकर्षित हो बन्ध करते हैं और अपने विपाक के अवसर पर शुभ अध्यवसायों, शुभ
१ ---तत्त्वार्थ०, पृष्ठ ६/४।
२ - योगशास्त्र ४ /१०७ । ३--स्थानांग टी. १/११-१२ । ४ - जैन धर्म, पृष्ठ ८४-१० ।
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