Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
View full book text
________________
जैन, बौद्ध और गीता के दर्शन में कर्म का स्वरूप ]
[ १७३
1
जैन और बौद्ध विचारणा में पुण्य के स्वरूप को लेकर विशेष अन्तर यह है । जैन विचारणा में संवर, निजरा और पुण्य में अन्तर किया गया है । जबकि बौद्ध विचाररणा में ऐसा स्पष्ट अन्तर नहीं है । जैनाचार दर्शन में सम्यक् दर्शन, (श्रद्धा) सम्यक् ज्ञान, (प्रज्ञा) और सम्यक् चारित्र ( शील) को संवर और निर्जरा के अन्तर्गत माना गया है । जबकि बौद्ध आचार दर्शन में धर्म, संघ और बुद्ध के प्रति दृढ़ श्रद्धा, शील और प्रज्ञा को भी पुण्य ( कुशल कर्म ) के अन्तर्गत माना गया है ।
पुण्य और पाप ( शुभ और अशुभ) की कसौटी :
शुभाशुभता या पुण्य-पाप के निर्णय के दो आधार हो सकते हैं । (१) कर्म का बाह्य स्वरूप तथा समाज पर उसका प्रभाव, (२) दूसरा कर्ता का अभिप्राय । इन दोनों में कौन सा आधार यथार्थ है यह विवाद का विषय रहा है । गीता और बौद्ध दर्शन में कर्ता के अभिप्राय को ही कृत्यों की शुभाशुभता का सच्चा श्राधार माना गया । गीता स्पष्ट रूप से कहती है जिसमें कर्तृत्व भाव नहीं है, जिसकी बुद्धि निर्लिप्त है, वह इन सब लोगों को मार भी डाले तथापि यह समझना चाहिए कि उसने न तो किसी को मारा है और न वह उस कर्म से बन्धन में आता है ।' धम्मपद में बुद्ध वचन भी ऐसा ही है । नैष्कर्म्य स्थिति को प्राप्त ब्राह्मण माता-पिता को दो क्षत्रिय राजाओं को एवं प्रजा सहित राष्ट्र को मारकर भी निष्पाप होकर जीता है । बौद्ध दर्शन में कर्ता के अभिप्राय को ही पुण्य पाप का आधार माना गया है । इसका प्रमाण सूत्रकृतांग सूत्र के आद्रक . बौद्ध सम्वाद में भी मिलता है । जहाँ तक जैन मान्यता का प्रश्न है विद्वानों के अनुसार उसमें भी कर्ता के अभिप्राय को ही कर्म की शुभाशुभता का आधार माना गया है। मुनि सुशीलकुमारजी लिखते हैं- शुभ-अशुभ कर्म के बंध का मुख्य आधार मनोवृत्तियाँ ही हैं । एक डॉक्टर किसी को पीड़ा पहुँचाने के लिए उसका व्रण चीरता है, उससे चाहे रोगी को लाभ ही हो जाए परन्तु डॉक्टर तो पाप कर्म के बन्ध का ही भागी होगा । इसके विपरीत वही डॉक्टर करुणा से प्रेरित होकर व्रण चीरता है औौर कदाचित उससे रोगी की मृत्यु हो जाती है तो भी डॉक्टर अपनी शुभ भावना के कारण पुण्य का बन्ध करता है । प्रज्ञाचक्षु पंडित सुखलालजी भी यही कहते हैं - पुण्य बन्ध और पाप बन्ध की सच्ची. कसौटी केवल ऊपर की क्रिया नहीं है, किन्तु उसकी यथार्थ कसौटी आशय ही है ।
कर्ता का
१ - गीता १८ / १७ ।
२- - धम्मपद २४६ ।
३ - सूत्रकृतांग २/६/२७-४२ ।
४ - जैन धर्म, पृष्ठ १६० ।
५- दर्शन और चिन्तन : खण्ड २, पृष्ठ २२६ ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org