Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
View full book text
________________
जैन, बौद्ध श्रौर गीता के दर्शन में कर्म का स्वरूप ]
[ १८१
देखते हैं कि बौद्ध विचारणा का भी अन्तिम लक्ष्य शुभ और अशुभ से ऊपर उठना है ।
गीता का दृष्टिकोण:
स्वयं गीताकार ने भी यह संकेत किया है कि मुक्ति के लिए शुभाशुभ दोनों प्रकार के कर्म फलों से मुक्त होना आवश्यक है । श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं अर्जुन ! तू जो भी कुछ कर्म करता है, जो कुछ खाता है, जो कुछ हवन करता है, जो कुछ दान देता है, अथवा तप करता है, वह सभी शुभाशुभ कर्म मुझे अर्पित कर दे अर्थात् उनके प्रति किसी प्रकार की आसक्ति या कर्तृत्व भाव मत रख । इस प्रकार संन्यास योग से युक्त होने पर तू शुभाशुभ फल देने वाले कर्म बन्धन से छूट जावेगा और मुझे प्राप्त होवेगा ।' गीताकार स्पष्ट रूप से यह स्वीकार करता है कि शुभ कर्म और अशुभ कर्म दोनों ही बन्धन हैं और मुक्ति के लिए उनसे ऊपर उठना आवश्यक है । बुद्धिमान व्यक्ति शुभ और अशुभ या पुण्य और पाप दोनों को ही त्याग देता है। सच्चे भक्त का लक्षण बताते हुए पुन: कहा गया है कि जो शुभ और अशुभ दोनों का परित्याग कर चुका है। अर्थात् जो दोनों से ऊपर उठ चुका है वह भक्तियुक्त पुरुष मुझे प्रिय है । डॉ० राधाकृष्णन् ने गीता के परिचयात्मक निबन्ध में भी इसी धारणा को प्रस्तुत किया । वे प्राचार्य कुन्दकुन्द के साथ सम स्वर ही कहते हैं— चाहे हम अच्छी इच्छात्रों के बन्धन में बन्धे हों या बुरी इच्छाओं के हैं । इससे क्या अन्तर पड़ता है कि जिन जंजीरों में हम बन्धे हैं वे लोहे की । ४ जैन दर्शन के समान गीता भी हमें यही बताती है कि प्रथमतः जब पुण्य कर्मों के सम्पादन द्वारा पाप कर्मों का क्षय कर दिया जाता है तदनन्तर वह पुरुष राग-द्वेष के द्वन्द्व से मुक्त होकर दृढ़ निश्चय पूर्वक मेरी भक्ति करता है । इस प्रकार गीता भी नैतिक जीवन के लिए अशुभ कर्म से शुभ कर्म की ओर और शुभ कर्म से शुद्ध या निष्काम कर्म की ओर बढ़ने का संकेत देती है । गीता का अन्तिम लक्ष्य भी शुभाशुभ से ऊपर निष्काम जीवन-दृष्टि का निर्माण है ।
बन्धन
तो दोनों ही सोने की हैं या
पाश्चात्य दृष्टिकोण :
पाश्चात्य आचार दर्शन में अनेक विचारकों ने नैतिक जीवन की पूर्णता के लिए शुभाशुभ से परे जाना आवश्यक माना है । ब्रेडले का कहना है कि
१ - गीता ६ / २८ ।
२ - गीता २/५० ।
३ - गीता १२ / १६ ।
४ - भगवत् गीता (रा० ) पृष्ठ ५६ ।
५ - गीता ७/२८ ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org