Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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ज्ञानयोग : भक्तियोग : कर्मयोग
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डॉ० राममूर्ति त्रिपाठी
भारतीय चिन्तन धारा मानवीय व्यक्तित्व में निहित संभावनाओं की चरितार्थता का मार्ग आरोपित करने के पक्ष में नहीं है-वह मानती है कि मार्ग उसके स्वभाव से निर्धारित होता है और वही सही है। इसीलिए यहाँ अध्यात्म के क्षेत्र में मार्गों का आनन्त्य लक्षित होता है । सच्चा एवम् परिणत-प्रज्ञ निर्देशक शिष्य की योग्यता के अनुसार ही दीक्षा दान करता है और उसका मार्ग निर्धारित करता है। मर्मज्ञों की धारणा है कि मानव अभावों में 'स्वभाव' को खो तो नहीं देता, परन्तु उस पर इतना आवरण डाल लेता है कि वह रहकर भी 'नहीं' सा हो जाता है। स्वभावेतर पदार्थों के बोध के औंधे और बहिर्मुखी स्रोत 'स्वभाव-बोध' की क्षमता को दबाए हुए हैं । आवश्यकता है इन आवरणों को जीर्ण कर उस क्षमता के अनावरण की, ताकि उसकी शाश्वत भूख मिट जाय, काम्य उपलब्ध हो जाय, स्वभाव में प्रतिष्ठित हो जाय।
स्वभाव की उपलब्धि निषेधात्मक नहीं, विधेयात्मक है-वह दुःख निवृत्ति रूप निषेधात्मक उपलब्धि नहीं है, प्रत्युत अन्य-निरपेक्ष स्वभावात्मक सुखोपलब्धि है । कहा जाता है कि कुछ लोगों का स्वभाव रुक्ष (द्रवीभावानुपेत) होता है और कुछ लोगों का द्रवीभावात्मक। पहली प्रकार की प्रकृति वालों का मार्ग 'ज्ञान मार्ग' है-ब्रह्म विद्या का मार्ग है और दूसरी प्रकार की प्रकृति वालों का मार्ग 'भक्ति मार्ग' है। ब्रह्म विद्या और भक्ति में मधुसूदन सरस्वती ने चार आधारों पर भेद किया है-स्वरूप, फल, साधन और अधिकार । उन्होंने कहा-(१) द्रवीभाव पूर्वक मन को भगवदाकार सविकल्पक वृत्ति भक्ति है जबकि द्रवीभावानुपेत अद्वितीय आत्म मात्र गोचर निर्विकल्पक मनोवृत्ति ब्रह्म विद्या या ज्ञान है। (२) भगवद् गुणगरिमग्रथित ग्रंथ का श्रवण भक्ति का साधन है जबकि तत्वमसि प्रादि वेदांत महावाक्य ब्रह्म विद्या का साधन है। (३) भगवद् विषयक प्रेम का प्रकर्ष भक्ति का फल है जबकि सर्वानर्थ मूल अविद्या निवृत्ति ही ब्रह्मविद्या का फल है। (४) भक्ति में प्राणिमात्र का अधिकार है जबकि ब्रह्म विद्या में साधनचुतुष्य सम्पन्न परमहंस परिव्राजक का ही अधिकार है। भक्तिमार्ग स्वतंत्र है, ज्ञान-विज्ञान सभी उसके आधीन हैं। भक्त को भगवान् प्रसन्न होकर 'बुद्धि योग' प्रदान करता है जिसमें ब्रह्मविद्या निरपेक्ष अविद्या का नाश हो जाता है। भक्त भक्ति उसी तरह करता है जैसे उत्तम भोजन को पेटू । पेटू तृप्ति के लिए भोजन करता है पर भोजन की विविधाकार परिणतियां जाठर अग्नि करती है-अभिप्राय यह कि ज्ञान-विज्ञान
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