Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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जैन-बौद्ध दर्शन में कर्मवाद
डॉ० भागचन्द्र जैन भास्कर
ईश्वर की परतन्त्रता से निर्मुक्त होकर आत्म-स्वातन्त्र्य की पृष्ठभूमि में सत्कर्मों की प्रतिष्ठा करना कर्मवाद का प्रमुख सिद्धान्त रहा है। प्रत्येक व्यक्ति में आत्मा की परम शक्ति को प्राप्त करने की क्षमता विद्यमान रहती है जो अविद्या, प्रकृति, अज्ञान, अदृष्ट, मोह, वासना, संस्कार आदि के कारण प्रच्छन्न हो जाती है। मिथ्यादर्शनादि परिणामों से संयुक्त होकर जीव के द्वारा जिनका उपार्जन किया जाता है वे कर्म कहलाते हैं-'जीवं परतन्त्री कुर्वन्तीति कर्माणि ।' अथवा 'मिथ्यादर्शनादिपरिणामैः क्रियन्ते इति कर्माणि ।' दोनों दर्शनों की दृष्टि से यही कर्म संसरण का कारण होता है और इसी के समूल विनाश हो जाने पर निर्वाण की प्राप्ति होती है ।
बौद्धधर्म में कर्म को चैतसिक कहा गया है और वह चित्त के आश्रित रहता है। जैन धर्म में भी कर्म आत्मा के आश्रय से उत्पन्नं माने गये हैं। जैन धर्म में त्रियोग (मन, वचन, काय) को आस्रव और बंध तथा संवर और निर्जरा का मूल कारण माना गया है। बौद्धधर्म में भी कर्म तीन प्रकार के हैं (१) चेतना कर्म (मानसिक कर्म) और (२-३) चेतयित्वा कर्म (कायिक और वाचिक कर्म)। इन्हें 'त्रिदण्ड' कहा गया है। इनमें से मनोदण्ड हीनतम और सावद्यतम कर्म माना गया है। जैनधर्म की भी यही मान्यता है । उसमें बीस आस्रवों में पांचवां आस्रव योग आस्रव है। उसके तीन भेद होते हैंमनयोग, वचनयोग और काययोग । इसी तरह कर्म के तीन रूप भी बताये गये हैं-कृत, कारित और अनुमोदन । इनमें यद्यपि तीनों कर्म समान दोषोत्पादक हैं पर कृतकर्म अपेक्षाकृत अधिक दोषी माना जाता है यदि उसके साथ मन का संबंध है।
बौद्धधर्म में कर्म की परिपूर्णता के लिए चार बातों की आवश्यकता बतायी गयी है
(१) प्रयोग (चेतना कर्म) अर्थात् इच्छा (२) मौल प्रयोग (कार्य प्रारंभ) (३) मौल कर्मपथ (विज्ञप्ति कायकर्म तथा शुभ-अशुभ रूप अविज्ञप्ति
कर्म), तथा
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