Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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कर्म विपाक ]
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जन्मान्तरों को बिगाड़ देते हैं । उपशम श्रेणी पर प्रारूढ़ जीव को भी ये दुष्ट कर्म अनन्त काल तक संसार में भटकाते हैं ।
कर्म विपाक का सीधा सादा अर्थ यह है कि संसार में जो पग-पग पर विषमता दिखाई देती है, वह सब कर्म द्वारा ही उत्पन्न की गई है । एक उत्तम कुल में तो दूसरा अधम कुल में उत्पन्न होता है; एक ज्ञानी, दूसरा अज्ञानी; एक दीर्घ आयुष्य वाला, दूसरा अल्प प्रयुवाला; एक बलवान, दूसरा निर्बल; एक ऐश्वर्यवान, दूसरा निर्धन; एक रोगो, दूसरा निरोगी; इन सभी कर्मजन्य विषमताओं पर विचार करने पर ज्ञानी व्यक्ति को संसार से वैराग्य उत्पन्न हुए बिना नहीं रह सकता ।
कर्म विपाक के फलस्वरूप दंड प्राप्त करने पर ऐसा सोचना कि हम से कर्म हमारे पाप का बदला ले रहा है, गलत धारणा है । हम अपने पाप कर्म द्वारा ही दंड प्राप्त करते हैं । इसी प्रकार पुण्य कर्म का उपभोग करते समय ऐसी सोचना कि हमारे अच्छे कार्यों के बदले में कर्मसत्ता हमें सुख दे रही है, भी गलत है । अच्छे कार्य स्वयं ही हमें सुखानुभाव कराते हैं । दंड या पुरस्कार अथवा सुख या दुःख हमारी वृत्ति के हो परिणाम हैं । हमारी वृत्ति या चारित्र हमारी इच्छाओं का ही एकत्रित स्वरूप है । इच्छा ही कर्भ की प्रेरक सत्ता है और इच्छा या वासना द्वारा ही हम अपने भावी जीवन को निश्चित करते हैं । अतः हमारी इच्छा के विरुद्ध हमारा भविष्य निर्मित नहीं हो सकता ।
अनेक सुख-दुःखों को भोगने के बाद ही आत्मा में वासना के दुःखद परिणाम को समझने की निर्मल विवेक दृष्टि जागृत होती है । फिर वह उच्च जीवन की ओर आकर्षित होती है । अपने हृदय के ऊर्ध्वगामी वेग में वह अपनी गति मिला देती है । आत्मा की स्वाभाविक गति अग्निशिखा की भांति ऊर्ध्वगामिनि है, अतः यह सब समझने के बाद वह अपनी स्वाभाविक गति को उचित दिशा में मुक्त कर देती है ।
आत्मा की इच्छा के बिना कोई भी सत्ता उसे तिलमात्र भी इधरउधर नहीं कर सकती । जीव अपनी इच्छा से ही नया जन्म पाता है । इस नये जन्म के संयोग, परिवार, सगे-सम्बन्धी भी उसकी इच्छानुसार ही मिलते हैं । उसकी अतृप्त वासना जहां वैसे संयोग जुटा सके, वैसे स्थान में ही वह जन्म लेती है । यह सत्य है कि इन इच्छाओं या वासनाओं को आत्मा समझपूर्वक नहीं बनाती, वे सब उसके अन्तःकरण में अव्यक्त रूप से होती हैं ।
जिनमें बहुत उत्कृष्ट कला में विकसित आत्मभान होता है, वैसी आत्माएँ अपना पुनर्भव दृढसंकल्प से निश्चय करती हैं, क्योंकि उन्हें यह भान होता है कि
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