Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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[ कर्म सिद्धान्त
उनकी इच्छाएँ किस दिशा में गति कर रही हैं। जिन-जिन इच्छाओं के द्वारा हमें संसार में आना पड़ता है, वे सभी अशुभ नहीं होतीं। कितनी ही इच्छाएँ तो ऐसी उत्तम और भव्य होती हैं कि उनका विषय प्राप्त हो जाने के बाद जीवात्मा अपना स्वरूप ईश्वरत्व में परिणित करने में समर्थ बन जाती है।
यह सब कर्मराज द्वारा रचित नाटक है, जिसमें चौरासी प्रकार के रंगमंडप हैं और यह जीवात्मा विविध प्रकार के पात्रों के रूप धारण कर इसमें खेल खेल रहा है । कर्मराज के इस नाटक का सम्पूर्ण वर्णन करने में हम असमर्थ हैं। सद्गुरु के समागम से कर्म के स्वरूप और कर्म विपाक को समझ कर जो जीवात्मा कर्म निर्जरा के लिये प्रबल पुरुषार्थ करता है, वह अन्त में इस संसार सागर को पार कर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाता है ।
करम को अंग
करमां की बेड़ी बणी, सबही जग के मांय । रामदास झाड़ी सजड़, मोह कि झाट लगाय ॥१॥ रामा राम न जानियो, रह्या करम में फंस ।। करम कुटी में जग जल्या, काल गया सब डंस ॥२॥ करम कूप में जग पड्या, डूबा सब संसार । रामदास से नीसऱ्या, सतगुरु सबद विचार ।।३।। रामा काया खेत में, करसा एको मन्न । पाप पुन में बंध रह्या, भरया करम सूतन्न ।।४।। करम जाल में रामदास, बंध्या सब ही जीव । आसपास में पच मुबा, बिसर गया निज पीव ॥५।। करम लपेट्या जीव कू, भावै ज्यू समझाय । रामदास आंकर बिन, कारी लगै न काय ॥६॥
-स्वामी रामदास
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