Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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[ कर्म सिद्धान्त ___ अधिकांश अवसरों पर यही विडम्बना सामने आई है कि आन्तरिक उलझनों के कारणों को समझे बिना बाहर की समस्याओं के समाधान खोजने में विफलता का सामना करना पड़ता है। इतिहास साक्षी है कि इस दिशा में कैसे-कैसे प्रयत्नों के साथ क्या-क्या परिणाम सामने आये हैं ? सत्य तो यह है कि ये प्रयत्न समता की अपेक्षा विषमता के मार्ग पर ही अधिक चले और असफल होते रहे । इन्हीं उलझनों के कारण मानव जाति के बीच अशान्ति की ज्वाला भी धू-धू करके जलती रही है । आध्यात्मिकता के अनुशासन के बिना भौतिक विज्ञान के विकास ने भी आज के मानव को आत्म-विस्मृत बना दिया है। इस भावना शून्य भौतिक विकास ने मानव मन में उदंड महत्त्वाकांक्षाओं को जन्म दिया है तथा प्रात्मा की आन्तरिकता पर प्रावरणों की अधिक परतें चढ़ा दी हैं। इस कारण मनुष्य अपनी अन्तरात्मा के स्वरूप से बाहर ही बाहर भटकते रहने को विवश हो गया है। विषमता सभी सीमाएं तोड़ रही है यह स्थिति समता दर्शन के लिए प्रबल प्रेरक मानी जानी चाहिए। बस, मूल की भूल को पकड़ लें:
आदि युग में प्रधानतया इस चेतना के दो परिणाम प्रात्म-पर्यायों की दृष्टि से सामने आये हैं । एक पशु जगत का तो दूसरा मनुष्य जगत का । पश जगत् अब भी उसी पाशविक दशा में है जबकि मानव जगत् ने कई दिशाओं में उन्नति की है। आकाश के ग्रहों-उपग्रहों को छू लेने के उसके प्रयास उसकी चेतना शक्ति के विकास के प्रतिफल के रूप में देखे जा सकते हैं किन्तु वस्तुतः उसकी ऐसी चेतना शक्ति एवं उसकी विकास-गति पर-तत्त्वों के सहारे चल रही है-स्वाश्रयी या स्वतन्त्र नहीं है । चेतना शक्ति के इस प्रकार के विकास ने अपनी ही सार्वभौम सत्ता को जड़ तत्त्व के अधीन गिरवी रख दी है। अधिकांश मानव मस्तिष्क जड़ तत्त्वों की अधीनता में उनकी एक छत्र सत्ता में अपने आपको आरोपित करके चल रहे हैं। यही तथ्य है जिससे समस्याएं दिन-प्रतिदिन जटिलतर बनती जा रही हैं। यद्यपि अलग-अलग स्थलों पर समता भाव के सदृश समाजवाद, साम्यवाद आदि विचार सामने आये हैं जो अधिकतम जनता के अधिकतम सुख को प्रेरित करने की बात कहते हैं किन्तु इन विचारों की पहुँच भी भीतर में नहीं है। बिना आत्मावलोकन किये तथा भीतर की ग्रंथियों को खोले-बाहर की समस्याओं का समाधान संभव नहीं है । समता दर्शन की दृष्टि से यह सब मूल की भूल को पकड़ पाने के कारण दुरुह हो रहा है।
वर्तमान संसार में अधिकांशतः जो कुछ हो रहा है, वह बाहर ही बाहर हो रहा है । उसमें भीतर की खोज नहीं है। जहाँ तक मैं सोचता हूँ, मेरी दृष्टि में ऐसे सारे प्रयत्न मूल में भूल के साथ हो रहे हैं। मूल को छोड़कर यदि केवल शाखा-प्रशाखाओं को थामकर रखा जाय तो वैसी पकड भ्रामक भी होगी तो
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