Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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कर्म प्रकृतियाँ और उनका जीवन के साथ संबंध ]
[ १३५ ५. प्रायु-समग्र कर्म प्रकृतियों से प्रभावित जीवन की अवस्था आयु है । उसका वर्णन ४ प्रकार से किया गया है
१. नरकायु-जिस जीवन में विषय भोगों की अत्यन्त चाह हैं, भोग इच्छा सदा बनी रहती है, अरति और शोक में निमग्न चित्त सदा अशान्त रहता है, यह नरकायु का लक्षण है ।
२. तिथंच प्रायु-भोग से प्रवृत्त जीवन को तिथंच आयु कहते हैं जो विवेक जागृत होने पर कभी त्याग की ओर भी अग्रसर हो सकता है।
३. मनुष्य प्रायु-जिस जीवन में संकल्प की दृढ़ता होती है वह मनुष्य जीवन है । संकल्प की दृढ़ता के कारण भोग या त्याग में से किसी में लग जाने में पूर्ण समर्थ होना इसका लक्षण है।
४. देव आयु-त्याग की प्रवृत्ति होते हुए भी इच्छाओं से छुटकारा न पा सकना देव आयु का लक्षण है ।
६. नाम कर्म-घाति कर्मों का प्रभाव मन, इन्द्रियों और देह पर प्रकट होकर जिस प्रकार की क्रिया, क्रियाशक्ति का प्रयोग जिस क्रम से प्रकट होकर भोगों की ओर प्रेरित करता, वह नाम कर्म है । नाम कर्म में आगत कर्म प्रकृतियों का आधार इस प्रकार प्रतीत होता है :
गतियां मन के परिणामों की, जातियाँ इन्द्रियों की क्रियाओं की और शरीर, मन व इन्द्रियों के द्वारा होने वाली क्रियाओं के प्रकारों के द्योतक हैं । मन और इन्द्रिय की विभिन्न अवस्थाएँ संस्कारों के रूप में, इनकी निमित्त शक्तियाँ संहननों के रूप में, इनके विषय वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श के रूप में, विषयों में मन और इन्द्रियों की क्रियाएँ अंगोपांगों के रूप में, अंगोपांगों का शुभाशुभ प्रवृत्ति या विहायोगति के रूप में वर्णन की गई हैं। आगे की प्रकृतियाँ चेतन के अगुरु-लघुत्व गुण के कारण क्रमशः प्रकट होने वाली अवस्थाओं की सूचक हैं । नाम कर्म की प्रकृतियां इस प्रकार हैं
गति नाम कर्म-चित्त की सक्रियता का होना गति नाम कर्म है। ..
जाति नाम कर्म- इन्द्रियों की सक्रियता का होना जाति नाम कर्म है। यह एकेन्द्रिय, बेन्द्रिय अादि पांच इन्द्रियों की अपेक्षा पाँच प्रकार का है।
शरीर नाम कर्म–शरीर के अवयवों (क्रिया के साधनों) का कार्यरत होना शरीर नाम कर्म है । यह पाँच प्रकार का है
औदारिक–देह का सामान्य रूप से कार्यरत होना औदारिक शरीर है ।
वैक्रिय-इन्द्रियों का सामान्य से अधिक विकृत होकर कार्यरत होना वैक्रिय शरीर है।
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