Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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कर्म और कर्मफल ]
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यह भी सर्वनिश्चित है कि इन अशुभ कर्मों के फलों से भी वह मुक्त नहीं रह सकेगा। इसका भोग उसे करना ही होगा और वह अशुभ ही होगा।
कर्म और उसके फल के मध्य ईश्वर की सक्रियता को स्वीकार करना उपयुक्त नहीं। ईश्वरवादीजन तो ईश्वर को सर्वशक्तिमान नियंता मानते हैं। ऐसी स्थिति में ईश्वर इस जगत से अशुभ कर्मों को समाप्त ही क्यों नहीं कर देता? ऐसा क्यों है कि पहले तो वह आत्माओं को दुष्कर्मों में प्रवृत्त करता है और फिर उन अशुभ कर्मों के फलों को शुभ बनाने का काम भी करता है। एक प्रश्न यह भी महत्त्वपूर्ण है कि यदि ईश्वर ही फलदाता है तो कर्मों के फल वह तत्काल ही क्यों नहीं दे देता ताकि दुष्कर्मों के दुष्परिणाम देखकर अन्य जन सन्मार्गी हो सके।
एक स्थिति और विचारणीय हैं। जो पर पीड़क हैं, हिंसक हैं उन्हें अधर्मी समझा जाता है और उनके कर्म निन्दनीय तथा अनैतिक स्वीकार किये जाते हैं । वे अन्य प्राणियों को कष्ट देते हैं । यहाँ यह विचारणीय प्रसंग है कि जिन प्राणियों को कष्ट मिल रहा है, क्या वह ईश्वर की इच्छानुसार ही मिल रहा है ? या उन प्राणियों को अपने कर्मों का फल मिल रहा है ? ये हिंसक जन तो ईश्वर की इच्छा को ही पूरा कर रहे हैं फिर इन्हें निन्दनीय क्यों समझा जाय और इनके इन हिंसापूर्ण कार्यों का अशुभ फल इन्हें क्यों मिले?
इसी प्रकार दान को पुण्य कर्म कहा जाता है। भूखों को अन्नदान करना श्रेष्ठ कर्म है। भूखों को भूख का कष्ट भी तो ईश्वर ने ही दिया होगा फिर ईश्वर की व्यवस्था में किसो व्यक्ति द्वारा हस्तक्षेप करना शुभ कर्म कैसे कहा जा सकता है ? ईश्वर चाहता है कि अमुकजन भूख के कष्ट से पीड़ित रहे और हम उसे कष्ट से मुक्त कर दें तो ईश्वर की अप्रसन्नता ही होगी। ऐसी स्थिति में यह कर्म शुभ कैसे हो सकेगा ? ये सब भ्रामक स्थितियाँ हैं ।
___वस्तुतः जैनदर्शन का यह मत असंदिग्ध रूप से यथार्थ है कि न तो कोई कर्ता कर्म के फलों से बच सकता है और न ही किसी स्थिति में फल कर्मानुसार होने से बच सकता है। कोई शक्ति कर्मानुसार फलों को परिवर्तित नहीं कर सकती। ईश्वर भी नहीं।
जैन दर्शन और भाग्यवाद :
___ कर्म की प्रधानता से ऐसा आभास होने लगता है कि जैन दर्शन में भाग्यवाद का प्राबल्य है। व्यक्ति का यह जीवन समग्र रूप से पूर्व निर्धारित एवं अपरिवर्तनीय हो–यह भाग्यवाद का प्रभाव है। यदि कर्मफल को ही भोगते हुए
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