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________________ कर्म विपाक ] [ १२५ जन्मान्तरों को बिगाड़ देते हैं । उपशम श्रेणी पर प्रारूढ़ जीव को भी ये दुष्ट कर्म अनन्त काल तक संसार में भटकाते हैं । कर्म विपाक का सीधा सादा अर्थ यह है कि संसार में जो पग-पग पर विषमता दिखाई देती है, वह सब कर्म द्वारा ही उत्पन्न की गई है । एक उत्तम कुल में तो दूसरा अधम कुल में उत्पन्न होता है; एक ज्ञानी, दूसरा अज्ञानी; एक दीर्घ आयुष्य वाला, दूसरा अल्प प्रयुवाला; एक बलवान, दूसरा निर्बल; एक ऐश्वर्यवान, दूसरा निर्धन; एक रोगो, दूसरा निरोगी; इन सभी कर्मजन्य विषमताओं पर विचार करने पर ज्ञानी व्यक्ति को संसार से वैराग्य उत्पन्न हुए बिना नहीं रह सकता । कर्म विपाक के फलस्वरूप दंड प्राप्त करने पर ऐसा सोचना कि हम से कर्म हमारे पाप का बदला ले रहा है, गलत धारणा है । हम अपने पाप कर्म द्वारा ही दंड प्राप्त करते हैं । इसी प्रकार पुण्य कर्म का उपभोग करते समय ऐसी सोचना कि हमारे अच्छे कार्यों के बदले में कर्मसत्ता हमें सुख दे रही है, भी गलत है । अच्छे कार्य स्वयं ही हमें सुखानुभाव कराते हैं । दंड या पुरस्कार अथवा सुख या दुःख हमारी वृत्ति के हो परिणाम हैं । हमारी वृत्ति या चारित्र हमारी इच्छाओं का ही एकत्रित स्वरूप है । इच्छा ही कर्भ की प्रेरक सत्ता है और इच्छा या वासना द्वारा ही हम अपने भावी जीवन को निश्चित करते हैं । अतः हमारी इच्छा के विरुद्ध हमारा भविष्य निर्मित नहीं हो सकता । अनेक सुख-दुःखों को भोगने के बाद ही आत्मा में वासना के दुःखद परिणाम को समझने की निर्मल विवेक दृष्टि जागृत होती है । फिर वह उच्च जीवन की ओर आकर्षित होती है । अपने हृदय के ऊर्ध्वगामी वेग में वह अपनी गति मिला देती है । आत्मा की स्वाभाविक गति अग्निशिखा की भांति ऊर्ध्वगामिनि है, अतः यह सब समझने के बाद वह अपनी स्वाभाविक गति को उचित दिशा में मुक्त कर देती है । आत्मा की इच्छा के बिना कोई भी सत्ता उसे तिलमात्र भी इधरउधर नहीं कर सकती । जीव अपनी इच्छा से ही नया जन्म पाता है । इस नये जन्म के संयोग, परिवार, सगे-सम्बन्धी भी उसकी इच्छानुसार ही मिलते हैं । उसकी अतृप्त वासना जहां वैसे संयोग जुटा सके, वैसे स्थान में ही वह जन्म लेती है । यह सत्य है कि इन इच्छाओं या वासनाओं को आत्मा समझपूर्वक नहीं बनाती, वे सब उसके अन्तःकरण में अव्यक्त रूप से होती हैं । जिनमें बहुत उत्कृष्ट कला में विकसित आत्मभान होता है, वैसी आत्माएँ अपना पुनर्भव दृढसंकल्प से निश्चय करती हैं, क्योंकि उन्हें यह भान होता है कि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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