Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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कर्म का स्वरूप
0 पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री
कर्म सिद्धान्त के बारे में ईश्वरवादियों और अनिश्वरवादियों में एक सत्य होते हुए भी कर्म के स्वरूप और उसके फलदान के सम्बन्ध में मौलिक मतभेद हैं । साधारण तौर से जो कुछ किया जाता है उसे कर्म कहते हैं । जैसे-खाना, पीना, चलना, फिरना, हँसना, बोलना, सोचना, विचारना वगैरह । परलोकवादी दार्शनिकों का मत है कि हमारा प्रत्येक अच्छा या बुरा कार्य अपना संस्कार छोड़ जाता है। उस संस्कार को नैयायिक और वैशेषिक धर्म या अधर्म के नाम से पुकारते हैं । योग उसे कर्माशय कहते हैं, बौद्ध उसे अनुशय आदि नामों से पुकारते हैं।
. प्राशय यह है कि जन्म, जरा-मरण रूप संसार के चक्र में पड़े हुए प्राणी अज्ञान, अविद्या या मिथ्यात्व संलिप्त हैं। इस अज्ञान, अविद्या या मिथ्यात्व के कारण वे संसार के वास्तविक स्वरूप को समझने में असमर्थ हैं, अतः उनका जो कुछ भी कार्य होता है वह अज्ञानमूलक होता है, उसमें राग-द्वेष का अभिनिवेश लगा होता है। इसलिये उनका प्रत्येक कार्य आत्मा के बन्धन का ही कारण होता है । जैसा कि विभिन्न दार्शनिकों के निम्न मन्तव्यों से स्पष्ट है :
बौद्ध ग्रन्थ 'मिलिन्द प्रश्न' में लिखा है"मरने के बाद कौन जन्म ग्रहण करते हैं और कौन नहीं ? जिनमें क्लेश (चित्त का मैल) लगा है वे जन्म ग्रहण करते हैं और जो क्लेश से रहित हो गये हैं वे जन्म नहीं ग्रहण करते हैं। भन्ते ! आप जन्म ग्रहण करेंगे या नहीं ?
महाराज, यदि संसार की ओर आसक्ति लगी रहेगी तो जन्म ग्रहण करूंगा और यदि आसक्ति छुट पायेगी तो नहीं करूंगा।"
और भी-"अविद्या के होने से संस्कार, संस्कार के होने से विज्ञान, विज्ञान के होने से नाम और रूप, नाम और रूप के होने से छः आयतन, छः आयतन के होने से स्पर्श, स्पर्श के होने से वेदना, वेदना के होने से तृष्णा, तृष्णा के होने से उपादान, उपादान के होने से भव, भव के होने से जन्म और जन्म के
१. पृष्ठ ३६ ।
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