Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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कर्म, कर्मबन्ध और कर्मक्षय ]
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करते समय यदि जीव की भावना शुद्ध तथा राग-द्वेष, क्रोध-मान-माया-लोभकषायों से निर्लिप्त, वीतरागी है, तो उस समय शारीरिक कार्य करते हुए भी किसी भी प्रकार का कर्मबन्ध जीव में नहीं होता। मूलतः जीव के मनोविकार ही कर्मबन्ध की स्थिति को स्थिर क्रिया करते हैं। कार्य करते समय जिस प्रकार का भाव जीव के मन में उत्पन्न होता है, उसी भाव के तद्रूप ही जीव में कर्मबन्ध स्थिर हुआ करता है । प्रायः यह देखा/सुना जाता है कि विभिन्न व्यक्तियों द्वारा एक ही प्रकार के कार्य करने पर भी उनमें भिन्न-भिन्न प्रकार का कर्मबन्ध होता है । इसका मूल कारण है कि एक ही प्रकार के कार्य करते समय इन व्यक्तियों के भाव सर्वथा भिन्न प्रकार के होते हैं; फलस्वरूप इनमें भिन्न-भिन्न प्रकार का कर्मबन्ध होता है। जैन दर्शन में 'कर्मबन्ध' को चार भागों में विभाजित किया गया है, यथा
(१) प्रकृति बन्ध, (२) स्थिति बन्ध, (३) अनुभव/अनुभाग बन्ध,
(४) प्रदेश बन्ध । प्रकृति बन्ध :
जो बन्ध कर्मों की प्रकृति/स्वभाव स्थिर किया करता है, प्रकृति बन्ध
कहलाता है।
स्थिति बन्ध:
___ यह बन्ध कर्म-फल की अवधि/काल को निश्चित करता है। अनुभाग बन्ध:
__ कर्मफल की तीन या मन्द शक्ति की निश्चितता अनुभाग बन्ध कहलाती है। प्रदेश बन्ध :
कर्मबन्ध के समय प्रात्मा के साथ कार्माण वर्गणा/कर्म का सम्बन्ध जितनी संख्या या शक्ति के साथ होता है, प्रदेश बन्ध कहलाता है ।
इन चार प्रकार के कर्मबन्धों में प्रकृति और प्रदेश बन्ध योग के निमित्त से तथा कषाय-मिथ्यात्व-अविरति-प्रमाद के निमित्त से स्थिति और अनुभाग बन्ध हुआ करते हैं । जैन दर्शन के अनुसार मोह और योग के निमित्त से होने वाले आत्मा के गुणों का तारतम्य गुणस्थान/जीवस्थान कहलाता है । अर्थात् जीव के प्राध्यात्मिक विकास का क्रम गुणस्थान/जीवस्थान है। ये गुणस्थान/ जीवस्थान मिथ्या दृष्टि आदि के भेद से चौदह होते हैं जिनमें प्रारम्भ के बारह
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