Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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कर्म और पुरुषार्थ
० युवाचार्य महाप्रज्ञ
हम चर्चा करते हैं स्वतंत्रता और परतंत्रता की। कौन स्वतंत्र है और कौन परतंत्र, कौन उत्तरदायी है, इन प्रश्नों का उत्तर एकान्त की भाषा में नहीं दिया जा सकता । हम नहीं कह सकते कि हम पूर्ण स्वतंत्र हैं। हम यह भी नहीं कह सकते कि हम पूर्ण परतंत्र हैं। दोनों सापेक्ष हैं। हम स्वतंत्र भी हैं और परतंत्र भी। जहाँ-जहाँ निरपेक्ष प्रतिपादन होता है वहाँ समस्या का समाधान नहीं होता, सत्य उपलब्ध नहीं होता, सत्य के नाम पर असत्य उपलब्ध होता है।
महान् वैज्ञानिक आइंस्टीन ने सापेक्षवाद का प्रतिपादन किया और उसका आधार माना प्रकाश की गति को। उन्होंने प्रकाश की गति को स्टेण्डर्ड मानकर अनेक प्रयोग किए। प्रकाश की गति है एक सैकेण्ड में एक लाख छियासी हजार मील की । इस आधार पर जो निर्णय लिए गए वे सारे सापेक्ष निर्णय हैं, निरपेक्ष नहीं । प्रकाश की गति सापेक्ष निर्णय है। प्रकाश की गति
और तीव्र होती तो सारे निर्णय बदल जाते। काल छोटा भी हो जाता है और बड़ा भी हो जाता है । काल सिकुड़ जाता है सापेक्षता से। काल पीछे सरकता है और छलांग भी भरता है । काल का प्रतिक्रमण भी होता है और अतिक्रमण भी होता है । यह सारा सापेक्षता के आधार पर होता है। इसलिए सारे निर्णय सापेक्ष होते हैं। जहाँ सापेक्षता की विस्मृति होती है वहाँ तनाव पैदा होता है।
काल, स्वभाव, नियति, कर्म-ये सारे तत्त्व स्वतंत्रता को सीमित करते हैं, परतंत्रता को बढ़ाते हैं । आदमी काल से, स्वभाव से, नियति से और कर्म से बंधा हुआ है । बंधन के कारण वह पूर्ण स्वतंत्र नहीं है । वह परतंत्र है पर पूरा परतंत्र भी नहीं है । यदि वह पूरा परतंत्र होता तो उसका व्यक्तित्व ही समाप्त हो जाता । उसका मनुष्यत्व ही समाप्त हो जाता और चेतना का अस्तित्व ही नष्ट हो जाता। चेतना रहती ही नहीं। उसका अपना कूछ रहता ही नहीं। वह कठपुतली बन जाता । कठपुतली पूर्णतः परतंत्र होती है। उसे जैसे नचाया जाता है वैसे नाचती है । कठपुतली नचाने वाले के इशारे पर चलती है। उसका अपना कोई अस्तित्व या कर्तृत्व नहीं है, [चेतना नहीं है ।] जिसकी अपनी
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