Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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[ कर्म सिद्धान्त की वृत्ति उभरती है । जब आत्म-परिणाम नाभि कमल से ऊपर उठकर हृदय कमल की पंखुड़ियों पर जाता है तब समता की वृत्ति जागती है, ज्ञान का विकास होता है, अच्छी वृत्तियाँ उभरती हैं। जब आत्म-परिणाम दर्शन केन्द्र पर पहुँचता है तब चौदह पूर्वो के ज्ञान को ग्रहण करने की क्षमता जागृत होती है ।
____ यह सारा प्रतिपादन किस आधार पर किया गया है यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता किन्तु इस प्रतिपादन में एक बहुत बड़ी सच्चाई का उद्घाटन होता है कि मानव शरीर में अनेक संवादी केन्द्र हैं। इन केन्द्रों पर मन को एकाग्र कर, मन से उसकी प्रेक्षा कर, हम ऐसे द्वारों का उद्घाटन कर सकते हैं, ऐसी खिड़कियाँ खोल सकते हैं, जिनके द्वारा चेतना की रश्मियाँ बाहर निकल सकें और अघटित घटित कर सकें।
__ यह बहुत ही कठिन साधना है और निरन्तर लम्बे समय तक इसका अभ्यास, करने पर ही व्यक्ति को कुछ उपलब्धि हो सकती है या अच्छे परिणाम निकल सकते हैं । अभ्यास किये बिना पुस्तकीय अध्ययन से कोरा ज्ञान होगा। आगमवाणी के अनुसार
"अहिंसु विज्जा चरणं पमोक्खं ।" दुःख मुक्ति के लिए विद्या और आचार का अनुशीलन करें। पहले जानो, फिर अभ्यास करो।
निष्कर्ष यह है कि कर्म आत्मा से नहीं चिपकते परन्तु कर्म-शरीर जो आत्मा के साथ जन्म-जन्मान्तर रहता है, उससे चिपकते हैं। संदर्भ : १–हरिमोहन गुप्ता "अरविंद का सूक्ष्म शरीर", धर्म युग २० से
२८-२-८०। २-युवाचार्य महाप्रज्ञ-"शक्ति के जागरण सूत्र", प्रेक्षा ध्यान,
मार्च, १९८० ।
सवैया कर्म प्रताप तुरंग नचावत, कर्म से छत्रपति सम होई। कर्म से पूत कपूत कहावत, कर्म से और बड़ो नहीं कोई ॥ कर्म फिर्यो जद रावण को, तब सोने की लंक पलक में खोई। आप बढ़ाई कहा करे मूरख, कर्म करे सो करे नहीं कोई ॥
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