Book Title: Jinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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७२ ]
[ कर्म सिद्धान्त
प्रावृत्त करे उसे दर्शनावरण कहते हैं। जो सुख-दुःख का कारण हो उसे वेदनीय कहते हैं । जिसके उदय से जीव अपने स्वरूप को भूलकर पर पदार्थों में अहंकार तथा ममकार करे उसे मोहनीय कहते हैं। जिसके उदय से जीव नरकादि योनियों में परतन्त्र हो उसे आयुकर्म कहते हैं। जिसके उदय से शरीरादि की रचना हो वह नाम कर्म है । जिसके उदय से उच्च-नीच कुल में जन्म हो उसे गोत्रकर्म कहते हैं और जिसके द्वारा दान, लाभ आदि में बाधा प्राप्त हो उसे अन्तराय कर्म कहते हैं ।१८ ज्ञानावरण की पाँच, दर्शनावरणी की नौ, वेदनीय की दो, मोहनीय की अट्ठाईस, आयु की चार, नाम की तिरानवे, गोत्र की दो और अन्तराय की पाँच इस प्रकार सब मिलाकर एक सौ अड़तालीस उत्तर प्रकृतियां हैं। १६ शुभोपयोग रूप निमित्त से जो कर्म बंधते हैं वे पुण्य कर्म तथा अशुभोपयोग रूप निमित्त से जो कर्म बंधते हैं वे पाप कर्म कहलाते हैं । इस प्रकार निमित्त की अपेक्षा कर्मों के दो भेद हैं ।२०
कर्म आत्मा का गुण नहीं है क्योंकि आत्मा का गुण होने से वह अमूर्तिक होता और प्रमूर्तिक का बंध नहीं हो पाता । अमूर्तिक कर्म, अमूर्तिक आत्मा का अनुग्रह और निग्रह उपकार और अपकार करने में समर्थ नहीं होता ।२१ यद्यपि कर्म सूक्ष्म होने के कारण दृष्टिगोचर नहीं होता तथापि वह मूर्तिक है क्योंकि उसका कार्य जो औदारिक आदि शरीर है वह मूर्तिक है । मूर्तिक की रचना मूर्ति से ही हो सकती है इसलिए दृश्यमान औदारिकादि शरीरों से अदृश्यमान कर्म में मूर्तिपना सिद्ध होता है ।२२
निश्चय नय से आत्मा और कर्म दोनों द्रव्य स्वतन्त्र, स्वतन्त्र द्रव्य हैं इसलिए इनमें बंध नहीं है परन्तु व्यवहार नय से कर्म के अस्तित्वकाल में आत्मा स्वतन्त्र नहीं है इसलिए दोनों में बंध माना जाता है । व्यवहार नय से आत्मा और कर्मों में एकता का अनुभव होता है इसलिए आत्मा को मूर्तिक माना जाता है । मूर्तिक आत्मा का मूर्तिक कर्मों के साथ बंध होने में आपत्ति नहीं है ।२३
इस प्रकार संसार का प्रत्येक प्राणी परतन्त्र है । यह पौद्गलिक (भौतिक) शरीर ही उसकी परतन्त्रता का द्योतक है । पराधीनता का कारण कर्म है जगत में अनेक प्रकार की विषमताएं हैं । आर्थिक और सामाजिक विषमताओं के अतिरिक्त जो प्राकृतिक विषमताएं हैं उनका हेतु मनुष्यकृत नहीं हो सकता। विषमताओं का कारण प्रत्येक प्रात्मा के साथ रहने वाला कोई विजातीय पदार्थ है और वह पदार्थ कर्म है । कारण के बिना कोई कार्य नहीं हो सकता । जैसे आग में तपाने की विशिष्ट प्रक्रिया से सोने का विजातीय पदार्थ उससे पृथक् हो जाता है वैसे ही तपस्या से कर्म दूर हो जाता है ।
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