________________ जैन परम्परा में योग इसी प्रकार विसुद्धिमग्ग में उद्धृत गाथात्रों में कहा गया है कि संवेग उत्पन्न होने पर उसी आसन में एक श्रामणेर को अहत्त्व की उपलब्धि हो गई।22 इस अर्हत्त्व को 'स-उपादिसेस निब्बान' कहा जाता है, जिसकी अन्तिम परिणति 'अनुपादिसेस निब्बान' में होती है 23 जिसकी तुलना हम शैलेशी एवं अकर्मता से कर सकते हैं। इसी ग्रन्थ में अन्यत्र संवेग के आठ आलम्बन (वत्थु) बताये गये हैं, जो इस प्रकार है१. जाति, 2. जरा, 3. व्याधि, 4. मरण, 5. अपाय-दुःख, 6. अतीतकालीन दुःख, 7. अनागतकालीन दुःख और 8. वर्तमान आहार-पर्येष्टि-मूलक दुःख / 24 दुःखानुभूति ही धर्मश्रद्धा की उत्पत्ति का परम रहस्य है / 25 उपर्युक्त उद्धरणों से यह स्पष्ट फलित होता है कि प्राचीन काल में संवेग एवं निर्वेद मोक्ष-मार्ग के अनन्य अंग माने जाते थे / उपर्युक्त 16 गुच्छकों में जैन अध्यात्म-साधना सम्बन्धी आगमोक्त प्रायः सम्पूर्ण सामग्री का समावेश हो गया है / पहले गुच्छक का सम्बन्ध धर्मश्रद्धा के प्रादुर्भाव से एवं दूसरे गृच्छक का प्रात्म-दोषों के विवेचन से है। तीसरे गच्छक में छः अावश्यकों संग्रह है। चौथा गुच्छक क्षमापना से सम्बन्धित है, पंचम में स्वाध्याय का निरूपण है / ध्यान, संयम एवं तप द्वारा प्रात्म-शुद्धि का उल्लेख छठे में एवं अप्रतिबद्धता का निरूपण सातवें गुच्छक में किया गया है। विभिन्न प्रकार के प्रत्याख्यान पाठवें गुच्छक में संगृहीत हैं। आचेलक्य एवं वीतरागता नौवें में, क्षान्ति-मुक्ति आदि का दसवें में एवं त्रिविध सत्य का समावेश ग्यारहवें गुच्छक में उपलब्ध है / बारहवें एवं तेरहवें गुच्छक में संवर एवं समाधि-योग का निरूपण क्रमशः गुप्ति एवं समाधारणता के माध्यम से किया गया है, जो प्राचीनतम जैन प्रत्याहार एवं ध्यान-पद्धति की ओर संकेत करता है। चौदहवें गुच्छक में रत्न-त्रय रूपी मोक्ष-मार्ग का निर्देश है। तत्पचात पन्द्रहवें में इन्द्रियनिग्रह एवं सौलहवें में कषाय-विजय का निरूपण है। शेष तीन गुच्छकों में क्रमश: मिथ्यात्व-विजय, शैलेशी एवं अकर्मता का समावेश है। इस प्रकार विखरी हुई तत्कालीन जैन-साधना पद्धति का समग्र रूप से समायोजन पालोच्य अध्ययन में उपलब्ध है / पतञ्जलि के योगदर्शन में योग के आठ अंग बतलाये हैं / उन सबका समावेश जैनयोग-पद्धति में हो जाता है। उदाहरणार्थ—पतञ्जलि के यम एवं नियम के स्थान पर जैन साधना में पांच महाव्रत, उनकी भावनायें एवं बाह्य-प्राभ्यन्तर तपों के अन्तर्गत स्वाध्याय आदि उपलब्ध हैं। पतञ्जलि के आसन के स्थान पर जैन-साधना में भी कई प्रकार के आसनों का कायक्लेश के रूप में निर्देश है / 25 कायोत्सर्ग के अन्तर्गत प्राणायाम का समावेश है तथा प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि के स्थान पर गुप्ति, समाधारणता, ध्यान, समाधि आदि का विधान है। अतः यह स्पष्ट है कि योग के सभी अंगों का समावेश जैन आगमों में विभिन्न पारिभाषिक शब्दों के माध्यम से किया गया है। II कुन्दकुन्द-साहित्य में योग योग के विभिन्न अंगों का विभिन्न विधात्रों में विस्तार होता गया, जिसका निरूपण