________________ 38 जैनयोग : चित्त-समाधि वसुबंधु विरचित अभिधर्मकोशभाष्य (II) का दुःख विषयक यह कथन कि श्रद्धा का रहस्य दुःख में छिपा हुआ है (दुःखोपनिषच्छद्धा) इस सत्य की परिपुष्टि करता है / शुचौ निष्कंटके देशे समप्राणवपुर्मनाः / स्वस्तिकाद्यासनजयं कुर्यादेकाग्रसिद्धये / / 23 / / साधक स्वच्छ व निष्कंटक (स्त्री, पशु एवं पण्डक रहित) स्थान में प्राण एवं मन को संतुलित कर एकाग्रता की सिद्धि के लिए स्वस्तिकादि प्रासनों पर विजय पाने का प्रयत्न करे। प्राणायामो वपुश्चित्तजाड्यदोषविशोधनः / शक्त्युत्कृष्टकलत्कार्यः प्रायेणैश्वर्यसत्तमः // 24 // (ऐसी प्रासन-सिद्धि के अनन्तर) प्राणायाम द्वारा शरीर एवं चित्त की जड़ता दूर करे / इस प्राणायाम के द्वारा उत्कृष्ट शक्तियों की प्राप्ति होती है एवं सभी प्रकार के (अणिमा आदि) ऐश्वर्य उपलब्ध होते हैं / क्रूरक्लिष्टविर्तकात्म-निमित्तामय कण्टकान् / उद्धरेन् मतिशब्दादिवपुःस्वाभाव्य दर्शनात् / / 25 / / क्रूर, क्लेशयुक्त एवं हिंसात्मक निमित्त रूपी व्याधि-कंटकों को दूर करे / यह मन, शब्दादि विषय एवं काय के स्वभाव की प्रेक्षा से ही संभव है। चरस्थिरमहत्सूक्ष्मसंज्ञाज्ञानार्थसंगतिः / यथासुख जयोपायमिति यायाज्जितं जिनम् // 26 // नित्य-अनित्य, महत्-सूक्ष्म, ज्ञान-अज्ञान रूपी परस्पर विरोधी अर्थों की संगति युक्ति सिद्ध है। (इस संगति की देशना जिन भगवान् ने अनेकांत के माध्यम से की है। अतः) परस्पर विरोधी दृष्टियों पर सहज विजय पाने वाले, आत्मजयी जिन भगवान् की शरण स्वीकार करे। इत्यास्रवनिरोधोऽयं कषायस्तम्भलक्षणः / तद्धर्म्यमस्माच्छुक्लं तु तमःशेषक्षयात्मकम् / / 27 / / इस प्रकार यह प्रास्रवों के निरोध का प्रतिफलन कषायोपशमन है। यही धर्मध्यान है। इससे साधक शुक्ल-ध्यान की ओर अग्रसर होता है, जिससे अंवशिष्ट तम (कषाय एवं अज्ञान) का नाश होता है (यह पृथक्त्व-वितर्क-सविचार रूप प्रथम शुक्ल-ध्यान की अवस्था है)। उपर्युक्त श्लोकत्रय में धर्मध्यान का जो प्रतिपादन किया गया है, वह जैन ध्यानमार्ग पर एक असाधारण प्रकाश डालता है। प्राचीन परम्परा में धर्म-ध्यान के अन्तर्गत आज्ञाविचय, उपायविचय, विपाकविचय एवं संस्थानविचय का विधान है। प्रस्तुत पद्यों में ग्रन्थकार धर्मध्यान की एक नई व्याख्या उपस्थित करते हैं / उनका कहना है कि ज्ञान,